धरती कर श्रृंगार चली,अम्बर पनघट के तीर|
नीर गागर में भर करके|
पवन प्रेरित जल कण संवेग, भर रहे जीवन में उल्लास|
चतुर्दिशि फैले नव परिधान,हरीतिमा का देते आभास ||
इधर दादुरों की है टर टर, तो उधर है नक्काडों की नाद|
तभी तो खुश हो करके मोर, नाचते उपवन के उस पार||
किसलय सी सुकुमार बरखा ने,अब हर ली उसकी पीर|
अपनी बाँहों में भर करके|
कल कल की आवाज कहीं है, तो कहीं हर हर का संवेग|
आ गयी अब बरखा रानी, नदी नालों में भर भरकर मेह||
छिपे धरती में जो नवजात,उन अंकुरों से अब पूंछते मेघ|
जगाया तुमको जिसने आज,उसी का है मंगल अभिषेक ||
गा पड़े दादुर तब चहुँ ओर, मोर नाचे अब उपवन के बीच|
मोरनी थिरक थिरक करके|
गगन में घुमड़ घुमड़ बादल,बरखा का ही करते आहवान|
चमकती विद्युत् अब घन बीच, मेघ बरसें भीगा परिधान|
नारी नर झूमे हैं मिलकर, मुखर हैं शिशुओं के आहलाद |
नवोदित उत्सव सा परिदृश्य,उमड़ते जन मन के अरमान||
हो चली वसुंधरा भी कृतकृत्य, मिट गयी सारी उसकी पीर|
नीर अमृत सा पा करके|
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