गुरुवार, 30 जून 2011

बरखा रानी

धरती कर श्रृंगार चली,अम्बर पनघट के तीर| 
                                                 नीर गागर में भर करके|

पवन प्रेरित जल कण संवेग, भर रहे जीवन में उल्लास|
चतुर्दिशि फैले नव परिधान,हरीतिमा का देते  आभास ||
इधर दादुरों की है  टर टर, तो उधर है नक्काडों की नाद|
तभी तो खुश हो करके मोर, नाचते उपवन के उस पार||

किसलय सी सुकुमार बरखा ने,अब हर ली उसकी पीर| 
                                               अपनी बाँहों में भर करके|

कल कल की आवाज कहीं है, तो कहीं  हर हर का संवेग|
आ गयी अब बरखा रानी, नदी नालों में भर भरकर मेह||
छिपे धरती में जो नवजात,उन अंकुरों से अब पूंछते मेघ|
जगाया तुमको जिसने आज,उसी का है  मंगल अभिषेक ||

गा पड़े दादुर तब चहुँ ओर, मोर नाचे अब उपवन के बीच|
                                               मोरनी थिरक थिरक करके|

गगन में घुमड़ घुमड़ बादल,बरखा का ही करते  आहवान|
चमकती  विद्युत्  अब घन बीच, मेघ बरसें भीगा परिधान|
नारी नर झूमे  हैं  मिलकर, मुखर हैं शिशुओं  के आहलाद |
नवोदित उत्सव सा परिदृश्य,उमड़ते जन मन के अरमान||

हो चली वसुंधरा भी कृतकृत्य, मिट गयी सारी उसकी पीर|
                                                      नीर अमृत सा पा करके|             
















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