रविवार, 7 अगस्त 2011

कविता

कविता------
संस्कृति के पुनीत पर्व पर,
भाषा का उत्सव बनकर|
अभिव्यक्ति की उत्कृष्टता से,
मानवीय कृतित्व को--
मूल्यांकित करती है |
आत्माभिव्यक्ति की--
इस त्रिवेणी में,
डुबकी लगाकर,
मानवता -------- 
सदैव कृतकृत्य होती रही |
युगीन सन्दर्भों में ,
अब कविता ;
जीवन का----
सहज अर्थबोध लेकर,
अवतरित हो रही है |
मानवीय मूल्यों को,
पुन: परिभाषित करने के लिए |

नियति फूलों की

ना जाने क्यों ?
मुझे फूल ही प्रिय  हैं|
चाहे वे शाख पर टंगे हों,
अथवा धूसरित होकर,
धरती पर पड़े हों |
मुझे उनकी----
खुशबू व रंग,
सौन्दर्य से चाव नहीं |
मैं तो सिर्फ उनकी,
कोमलता को तराश कर;
बनाना चाह्ता हूँ,
कोई नया प्रतीक |
जो शदियों तक जगमगाता रहे,
किन्तु जब कभी ------
फूलों को उठाने  झुकता हूँ |
तो वे मलीन होकर ,
सिमटने लगते हैं \
मसलने के डर से--
दूर भाग जाते हैं |
सम्वाद पर सिर्फ सम्वेदना -
और अपनी मजबूरी व्यक्त करते हैं |
काश ? उनकी इच्छा का -
मुझे भी पूर्वाभास  होता |
तो मैं अपनी नियति पर,
 ऐसे दुखी ना होता |

बसन्त

यह बसन्त ----
बस अन्त शरद का 
अथवा  अन्त ------
जीर्ण पीत तरु पत्रों का |
सरसों अभी फूली नहीं ;
अरहर भी झनझनाई  नहीं |
शरद की अकड ,
अभी खत्म हुई नहीं |
आ गये ऋतुराज |
कू कू करती कोयल ,
फुदकने लगी डालों पर |
उपवन में तैरनी लगी-
मादक सुरभि;
कौतूहल ने सिर उठाया | 
बासन्ती घूँघट डालकर -
चल पड़ी पोखर को |
कहने लगीं सखियाँ,
कब होगा अन्त ;
अब इस शरद का |

सुनहरे पल

जिस दिल की आरजू कभी मुहब्बत न पा सकी 
अब बदले में वह नफरतों का सैलाब ढो रही है |\

किस्मत को दोष दूं या अपना गुनाह मान लूं |
दिल को तसल्ली कैसे दूं सच्चाई तो जान लूं |

|कुदरत भी ना लगा पाई जिस चीज पर पाबंदी |
उन रंगीन फिजाओं में पतझड़ का बसेरा देखा ||

इन्सान से फरिश्ते तक की दूरी जो मिटायी हमने |
लगता  ख्वाब था सच्चाई तो अब दिखायी तुमने ||

अदाओं को इबादत का जामा तो पहना ही दिया है |
अब बहार आने पर कलियों को चटकना ही होगा ||

तेरी यह मुस्कान और निगाहों की थिरकनें |
हकीकत में कोई रंगीन  शरारत तो  नहीं हैं ||

जिसे मैं प्यार की मंजिल समझ बैठा हूँ चुपके से |
तवस्सुम  बेतकल्लुफ वह तेरी आदत तो नहीं है || 

ख्वाबों को हकीकत में बदलना तो जरा मुश्किल है |
अगर हाथ तुम बढाओ तो कोशिश एक मुमकिन है ||

क्षणिकाएं

यह दास्ताँ जो आपने सुनायी अभी जुबाँ से ,
नजरों की दास्ताँ से मुझे बेमेल लग रही है |\

वतन की तरक्की का कोई भी सानी नहीं होगा |
घर घर होगा कम्प्यूटर मगर पानी नहीं होगा ||

मेरी एक आह भी बदनाम क्यों हो जाती है ?
उनके हजारों कत्ल की चर्चा भी नहीं होती है |

मौत तो होती है उनकी जो कभी न याद आयें |
जो हमेशा याद आते मौत उनका क्या करेगी ||

वफा से बेवफाई तक फासला तय किया मैंने |
कहो तो नाप कर देखूं इन्हीं लाचार कदमों से ||

जमीं पर चाँद देखा तो आसमाँ सुर्ख नजर आया |
खुदा के वास्ते अब उस चांदनी पर पर्दा मत डालो ||

बलिदान दिवस

छलक पड़ा जिनके पौरुष से ,
 देश भक्ति का यह राष्ट्र कलश |
  उन अमर शहीदों की स्मृतियाँ 
   लेकर आया बलिदान- दिवस ||

                        जिस आहुति के प्रतिफल में ही ,
                         यह भारत स्वतंत्र कहलाया है  |
                          पन्द्रह अगस्त छब्बीस जनवरी,
                               राष्टीय-पर्व  बन  कर आया है ||

स्वतन्त्रता का जो प्रतीक ध्वज,
 भारत माँ  का  गौरव  कहलाया |
  सदियों का इतिहास सिमटकर,
   मुक्त गगन में जब  है फहराया ||

                                   नवजागृति का यह पावन दिन,
                                     जब जीवन का गौरव बन जाये  |
                                       लेकर संकल्प स्वदेश- हित  में ,
                                         हम जीवन धारा को सदा बहायें  ||

कण कण का उन्माद मिटाकर ,
  ज्योति सृजन को गले लगाए |
   अहँकार ईर्ष्या को भी हम सब ,
    निज जीवन से अब दूर भगाएं ||

                                            स्वतन्त्रता का पुण्य दिवस यह,
                                              आया अब हमको यह बतलाने|
                                                सावधान अब वक्त आ गया है ,
                                                  नव जागृति का संदेश सुनाने ||

शत शत प्रणाम की श्रद्धान्जली,
 अब संकल्पों को  देगा यह वर |
  वीर शहीदों  की भाव भूमि पर,
  अब सत्य अहिंसा का गूजे स्वर ||

राष्ट्र के प्रति

जन मन की नंगी अरमानें,
अनुशासित लौहकवच में हो |
मानव में प्रेम प्रवाह दिखे तो,
 नीरवता हर  जन-मन में हो || 
  तभी  स्वदेश  मधुवन  होगा ||

                                   जन मन में कर्तव्य -प्रेम का ,
                                    जब शोला धडके हो धूम्रहीन |
                                     मानव की वाणी अमृत बनेगी ,  
                                     आनन्द-श्रोत सा दुःख-विहीन ||
                                       तभी  स्वदेश  मधुवन  होगा ||

सहयोग  प्रदर्शन  साथ- साथ ,
यदि जन- जन में छायी होगी |
श्रम की  बूँद-बूँद से सिन्चित,
इन खेतों में  हरियाली  होगी ||
तभी  स्वदेश  मधुवन  होगा ||

                                     मातृभूमि के प्रेम सहित यदि,
                                      भू-रक्षा  का भी अरमान  रहे|
                                        उच्च  शिखर पर देश  रहेगा,
                                         इस गौरव का अभिमान रहे||
                                          तभी  स्वदेश  मधुवन  होगा ||

जब श्रम की हरइक कीमत से,
 इस धरती को स्वर्ग  बनायेंगे |
 तब  विकास की लहरों से यह 
 वन उपवन भी सब लहरायेंगे |
  तभी  स्वदेश  मधुवन होगा ||

                                     नग्न क्षुधाकुल की काया भी ,
                                     जब सुख की सासें लेती होंगी |
                                     तब देश हमारा अपना  होगा,
                                     तब  धरती यह अपनी  होगी ||
                                      तभी  स्वदेश  मधुवन  होगा ||
             

शनिवार, 6 अगस्त 2011

अकिंचन

 मैं एक अकिंचन अति आतुर ,
भ्रमित पथिक सा खड़ा मौन |
सागर की लहरों के नर्तन को  ,
निष्फल कर देता भला कौन |

                                     कर रहे  प्रतीक्षा  तृषित  नयन,
                                     मन अति अधीर पर क्षुब्ध नहीं |
                                     ह्रदय सीप में जो मोती बनती है ,
                                     उस  स्वाति की  मैं वह बूँद  नहीं | 

तृष्णा, माया ,घृणा, मोह  सब ,
मिल करके रचते बस अंधकार ||
केवल  प्रेम- मार्ग   ऐसा  पथ है  ,
जो जीवन-नैय्या को करता पार || 

                                           झंकृत भाव करते  प्रतिबिम्बित ,
                                           स्पन्दन में कोई  प्रीति  जगाकर |
                                           चेतन से बेहतर तो  जड़  लगते हैं 
                                            वन, पर्वत, उपवन, झरने,सागर ||

वीतरागी  का  यह  दृढ -संकल्प,
 शिथिल हो जब लेता उच्छ्वास |
 प्रकृति का  नैसर्गिक  परिदृश्य ,
 उमड़ता  बनकर  भाव -विलास ||


शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

श्रृंखला: प्रभात

श्रृंखला: प्रभात: "रात भर रोती रही क्यों, रजनी दिवाकर के प्रणय में | सोचती थी प्रिय मिलन की,आस क्यों है दूर मग में || थी गिराती अश्रु-जल जब, त्याग करके धैर..."