कौन तुम चंद्रमुखी सुकुमार,
भावना सा कोमल मृदुगात |
सृष्टि में प्रतिविम्बित होकर,
नवसर्जना का देता आभास ||
रक्त अम्बुज सा यह परिधान ,
कर रहा सौन्दर्य में अतिवृद्धि |
वीतरागी मन का उच्छ्वास,
प्रदर्शित क्यों करता अनुरक्ति ||
हम अकारण भी कह दें कैसे ,
ह्रदय में उठता हो जब ज्वार |
शब्द से परिचय का उदवेग ,
प्रदर्शित ना कर बैठे अनुराग ||
तड़ित जिज्ञाषा सी कौंध रही ,
बह रहा पवन भाव- सम्वेग |
शायद मुखमंडल से टकराए.
प्रीति जलकण बन जाये मेह ||
पूंछता अति आतुर चातक,
कहाँ है वह स्वाति की बूँद |
सीप में मोती बनती है जो,
समझने में हो जाये न भूल ||
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