जन मन की संतप्त व्यथा जब
व्याकुलता ले आती मन में |
सागर के अंतर्भावों से तब
वाष्प पुंज बन उमड़े नभ में ||
अनिल- प्रवाहित केश- पुंज सा
बिखर गये नभ में कुछ जलधर |
स्तब्ध दिशाएँ विहँस पड़ी अब
झर झर झरती बूंद अवनि पर ||
जन- मन के आकर्षण से बादल
लो गरज रहे अब होकर निश्छल |
पाकर अमृत- जल तृप्त हुए सब
अब धरती भी हो गयी पूर्ण सजल ||
वन से उपवन तक दौड़ पड़ी अब
हरियाली की ऐसी ज्योति लहर |
मुखरित होकर उन्मुक्त नाद से
अब चहक उठे हैं सारे नभचर ||
मोरों का अब चंचल मन देखो
मोरनी को चहूँदिशि खोज रहा |
गगनोंमुख होकर जलधर के
एक सरस नाद को सोच रहा ||
अब पूर्ण हुई उसकी अभिलाषा
जब फूट पड़े हैं नभ से घनऱव |
लो नाच उठा है मन मयूर भी
नभचर के सुनकर कलरव ||
अब पा करके यह तृप्ति दान
जाग उठे वसुधा के कण कण |
चहूँदिशि फैलायेंगे हरियाली
अब अंकुर बोल पड़े सस्वर ||
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