शनिवार, 23 सितंबर 2017

मेरी अन्तर्यात्रा

                                                   आत्मचिन्तन :_
यह तथ्य सर्वविदित है कि कोई भी यात्रा आरम्भ करने के पूर्व यात्री को अपनी यात्रा का प्रस्थान बिन्दु ,यात्रा के विभिन्न पड़ाव और गन्तव्य स्थल का निर्धारण कर लेना आवश्यक होता है अन्यथा निरुद्देश्य यात्रा का कोई भी प्रयोजन या परिणाम सिद्ध नहीं हो पाता है।अतः अपनी यात्रा का गंतव्य स्थल अथवा प्रारम्भिक बिन्दु निश्चित करने हेतु सर्वप्रथम "मैं कौन हूँ "का चयन करते हुए आगे बढ़ रहा हूँ क्योंकि अपने आप की सत्ता से मैं इंकार भी नहीं कर सकता क्योंकि अपने का अनुभव तो मुझे नित्य होता रहता है।यहां पर मैं, का तात्पर्य आत्मा से है। इसीलिए आत्मा एवं परमात्मा की अद्वैत सत्ता का ज्ञान प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक माना गया है। इसी अद्वैत सत्ता की अनुभूति को आत्मानुभूति अथवा ईश्वरानुभूति की संज्ञा दी जाती है। आत्मा,परमात्मा और परब्रह्म का साक्षात् अपरोक्ष ज्ञान ही अपरोक्षानुभूति कहलाती है जिसे जीवन की सर्वोच्च पूर्णावस्था भी कहा जाता है और यही जीवन जीने का उत्कृष्ट विधान अथवा कला भी है। ऐसा मैं इस लिए सोच रहा हूँ क्योंकि मन,बुद्धि एवं भावना के साथ यह दुर्लभ मानव शरीर मुझे मिला है किन्तु इसे परम् सौभाग्य तब तक नहीं माना जा सकता जब तक बुद्धि के `इतर शुद्ध चेतना तक की अंतर्यात्रा करके महामानव की यथास्थिति प्राप्त अथवा ज्ञात नहीं कर ली जाती। अपने आत्मस्वरुप में स्थित रहकर अपने शरीर ,मन एवं बुद्धि को अपना साधन बनाकर स्वयं कोई पारमार्थिक उपलब्धि प्राप्त करने का सतत प्रयास करते रहना ही मेरी दृष्टि में वास्तविक मुक्ति होगी और इसे ही मानव विकास का चरम लक्ष्य भी माना गया है। किसी तथ्य या वस्तु को मानसिक रूप से यथावत समझ लेना तो भौतिक विज्ञानं कहलाता है किन्तु उसको बौद्धिक रूप से ग्रहण करके उसका अनुभव करना अनुभूति कहलाती है। इस अपरोक्षानुभूति हेतु पात्रता भी अनिवार्य है क्योंकि इस सूक्ष्म विद्या के द्वारा जीवन एवं उसकी परमगति अर्थात अंतर्निष्ठ रहस्य को ज्ञात करना इतना सरल भी नहीं है।
किसी बड़े लक्ष्य की ओर मन की नियमित एकाग्रता और पूर्ण संतुलित प्रवाह ही तपस्या कहलाती है। अपने जीवन स्तर और सामाजिक सामंजस्य स्थापित करने हेतु नियमानुसार अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक अनुपालन करना भी एक प्रकार की तपस्या ही कहलाती है। परमपिता परमेश्वर का सतत चिन्तन ,ध्यान व आराधन की इस प्रारम्भिक अवस्था को हरितोषण कहा गया है। तोषण का तात्पर्य आत्मनिष्ठ परमात्मा को प्रसन्न करना है। इस मार्ग पर चलने से वासनाएं स्वतः क्षीण होने लगती हैं जिससे मन एकाग्र और चिन्तनशील बनता है। वैराग्य का तात्पर्य अनासक्ति से है क्योंकि विषयासक्ति के कारण मन परमात्मा में एकाग्र नहीं हो पाता और इसीलिए वैराग्य की आवश्यकता बतायी गयी है। शंकराचार्य जी ने कहा है कि ब्रह्म से लेकर  घास के तिनके तक सभी का इन्द्रिय विषयों से पूर्णतयः अनासक्त रहना ही वैराग्य है। अतः वैराग्य एक मानसिक प्रवृत्ति है। वैराग्य इस लिए भी आवश्यक है क्योंकि आत्मा का स्वरूप नित्य है और जगत की सभी वस्तुएं अनित्य हैं। आत्मा स्वभावतः चेतनस्वरूप है। इस चेतन स्वरूप की अनुभूति हेतु शम और दम अर्थात वासनाओं के त्याग और वाह्यवृत्तियों को रोकने की आवश्यकता होती है। कामनाओं के कारण मन को अशांत होने से रोकना ही शम है तथा इन्द्रिजन्य विषयों को स्वयं के भीतर प्रविष्ट कर विक्षेप न उत्पन्न होने देना दम  कहलाता है। विषयों से पराङ्गमुख होने की स्थिति को परम् उपरति और कष्ट को सहन करने की सामर्थ्य को तितिक्षा कहा जाता है।
विचार अथवा संकल्प ;---
आत्मचिन्तन शब्द दो शब्दों अर्थात आत्म एवं चिन्तन के संयोग से बना है जिसका तात्पर्य स्वयं के बारे में चिन्तन करने से है। आचार्य शंकर ने भी कहा है ---
             नोत्पद्यते  विना  ज्ञानं  विचारेणान्यसाधनैः।
             यथा पदार्थभानं हि प्रकाशेन विना क्वचित।
जिस प्रकार प्रकाश के बिना किसी पदार्थ का आभास नहीं हो पाता है उसी प्रकार बिना विचार के अन्य किसी भी साधन से ज्ञान नहीं प्राप्त किया जा सकता है।
इसका अभिप्राय यह है कि बिना सदविचार किये ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है। अतः आत्मचिन्तन द्वारा ही आत्मज्ञान सम्भव  हो सकता है और अन्ततः आत्मज्ञान से ही आत्मसाक्षात्कार जिसे ईश्वरानुभूति भी कहते हैं ,प्राप्त किया जा सकता है। आत्मचिन्तन का प्रथम विषय मैं अर्थात आत्मा हूँ। मैं कौन हूँ ,कहाँ से आया हूँ ,इसी चिन्तन से अपनी अन्तर्यात्रा प्रारम्भ करता हूँ। शंकराचार्य जी ने भी अपने निम्न श्लोक में यही प्रश्न उठाया है ;
            को  हं कथमिदं जातं को वै कर्तास्य विद्यते।
            उपादानं किमस्तीह   विचारः  सो यमीदृशः। .
मैं कौन हूँ ?यह जगत किस प्रकार उत्पन्न हुआ ?इसका कर्ता कौन है ?इसका उपादान कारण क्या है ?वह विचार इस प्रकार का होता है।
किसी भी विचार के पूर्व मन को उसी दिशा में ले जाना पड़ता है जहाँ या जिसके बारे में विचार करना अभीष्ट हो। मैं कौन हूँ, के प्रश्न के सापेक्ष यह अनुभव भी होता है कि इस वाह्य जगत का प्रत्यक्ष अनुभव मेरे द्वारा ही हो रहा है शरीर,मनबुद्धि अथवा इसके अतिरिक्त भी कोई है जिसे यह एहसास होता है। यह जगत किस प्रकार और किसके द्वारा बनाया गया है ,आदि प्रश्नों की ओर मन को ले जाएँ तो किंचित इसका समाधान मिल सकता है। मैं कौन हूँ ,के बारे में विचार करने पर यह ज्ञात होता है कि मैं भूतों का संघात शरीर नहीं हूँ और न ही इन्द्रिय समूह हूँ बल्कि इससे भिन्न कोई और हूँ। ऐसा महशुस होता है कि मैं मन,बुद्धि और शरीर का उपयोग उसी प्रकार से कर रहा हूँ जैसे किसान अपने खेत में खुरपी से कार्य करता है और जिस प्रकार किसान स्वयं खुरपी नहीं है वैसे ही मैं शरीर और इन्द्रिय नहीं हूँ अर्थात शरीर,इन्द्रिय और मन से मैं पृथक सत्ता हूँ। जिस प्रकार घट का उपादान कारण मिटटी है वैसे ही विचारों का उपादान कारण एक सूक्ष्म ,अविनाशी सत्ता है ,ऐसा मुझे अनुभव होता है। मैं केवल सूक्ष्म ज्ञाता, सत और अविनाशी हो सकता हूँ और वह सत्ता है आत्मा। आत्मा कलाहीन और एक है तथा देह अथवा शरीर अनेक तत्वों से निर्मित है। इन दोनों की जो एकता दृश्य होती है ,इसी को शास्त्रों में अज्ञान बताया गया है।
श्रीमदभागवत के तृतीय स्कंध के आठवें अध्याय में ऋषि मैत्रेय जी जगत की संरचना के संदर्भ में बताते हैं कि सर्वशक्तिमान भगवान ने जब देखा कि आपस में संगठित न होने के कारण मेरी महत्तत्व आदि शक्तियां विश्व रचना के कार्य में असमर्थ हो रहीं हैं तब वे कालशक्ति को स्वीकार करके एक साथ ही महत्तत्व,अहंकार,पंचभूत,पञ्चतन्मात्रा और मन सहित ग्यारह इन्द्रियां -इन तेईस तत्वों के समुदाय में प्रविष्ट हो गए। इसके बाद उन्होंने जीवों के सोये हुए अदृष्ट को जाग्रत किया और परस्पर विलग हुए। उस तत्व समूह को अपनी क्रिया शक्ति द्वारा आपस में मिला दिया। इस प्रकार जब भगवान ने अदृष्ट को कार्योंन्मुख किया तब उस तेईस तत्वों के समूह ने भगवान की प्रेरणा से अपने अंशों द्वारा अधिपुरुष विराट को उत्पन्न किया अर्थात जब भगवान ने अंशरूप से अपने इस शरीर में प्रवेश किया तब वह विश्व रचना करने वाला महतत्त्वादि का समुदाय एक दूसरे से मिलकर परिणाम को प्राप्त हुआ। यह तत्त्वों का परिणाम ही विराट पुरुष है जिसमें चराचर जगत विद्यमान है। जल के भीतर जो अन्डरूप आश्रय स्थान था ,उसमें वह हिरण्यमय विराट पुरुष सम्पूर्ण जीवों को साथ लेकर एक हजार दिव्य वर्षों तक रहा। वह विश्व रचना करने वाले तत्वों का गर्भ था तथा ज्ञान, क्रिया और आत्मशक्ति से सम्पन्न था। इन शक्तियों से उसने स्वयं अपने क्रमशः एक हृदयरूप ,दस प्राणरूप,और तीन आद्यात्मिक,आधिदैविक ,आधिभौतिक विभाग किये। यह विराट पुरुष ही प्रथम जीव होने के कारण समस्त जीवों का आत्मा ,जीवरूप होने के कारण परमात्मा का अंश और प्रथम अभिव्यक्ति होने के कारण भगवान का आदि अवतार है। फिर विश्व रचना करने वाले महतत्त्व आदि के अधिपति श्रीभगवान ने उनकी प्रार्थना को स्मरण कर उनकी वृत्तियों को जगाने के लिए अपने चेतनरूप तेज से उस विराट पुरुष को प्रकाशित किया। उसके जाग्रत हो जाने के बाद पहले मुख प्रकट हुआ जिसमें लोकपाल अग्नि अपने अंश वागिन्द्रिय के समेत प्रविष्ट हो गया ,जिससे यह जीव बोलता है। इसके बाद विराट पुरुष के तालू उत्पन्न हुआ जिसमें लकोपल वरुण अपने अंश रसनेन्द्रिय के साथ स्थित हुआ जिससे जीव रस ग्रहण करता है। इसके बाद उस विराट पुरुष के नथुने प्रकट हुए ,उनमें दोनों अश्विनीकुमार अपने अंश घ्राणेन्द्रिय के सहित प्रविष्ट हुए ,जिससे जीव गंध ग्रहण करता है। इसी प्रकार जब उस विराट देह में आँखें प्रकट हुईं तब उसने अपने अंश नेत्रेन्द्रिय के सहित लोकपति सूर्य ने प्रवेश किया जिससे पुरुष को विविध रूपों का ज्ञान होता है.फिर क्रमशः त्वचा,कर्ण,चर्म लिंग उत्पन्न हुआ। लिंग आश्रय में प्रजापति ने अपने अंश वीर्य के सहित प्रवेश किया जिससे जीव आनंद का अनुभव करता है। इसके बाद गुदा,हाथ,चरण,बुद्धि,अहंकार,चित्त आदि प्रकट हुये। उस विराट पुरुष के सिर से स्वर्गलोक,पैरों से पृथ्वी और नाभि से आकाश उत्पन्न हुआ। इनमें क्रमशः सत्व,रज,और तम इन तीन गुणों के परिणामस्वरूप देवता,मनुष्य और प्रेतादि देखे जाते हैं। सत्वगुण की प्रधानता के कारण देवता लोग स्वर्गलोक में ,रजोगुण की प्रधानता के कारण मनुष्य व् उनके उपयोगी गौ आदि पृथ्वीलोक में तथा तमोगुणी स्वभाव वाले बहुत प्रेतादि दोनों के मध्य अंतरिक्ष में रहने लगे। आगे बताया गया कि उनके मुख से वेद और ब्राह्मण प्रकट हुए। उनकी भुजाओं से क्षत्रिय जांघों से वैश्य और चरणों से शूद्र उत्पन्न हुए। यह विराट पुरुष काल,कर्म और स्वभाव शक्ति से युक्त भगवान की योगमाया के प्रभाव को प्रकट करने वाला है।
इन्द्रिय ज्ञान जहाँ प्रश्नोत्तर हेतु असमर्थ दिखायी पड़े वहाँ शास्त्रों का सहारा लेना चाहिए क्योंकि शास्त्र भी ज्ञान के ही साधन बताये गए हैं। मन एवं बुद्धि उक्त प्रश्नों की जिज्ञासा तो उत्पन्न कर सकते हैं किन्तु उनका पूर्ण समाधान करने में असमर्थ हो जाते हैं। मन, शरीर ,बुद्धि एवं इन्द्रियां ससीम हैं किन्तु आत्मा एवं ब्रह्म को शास्त्रों में असीम बताया गया है और ऐसा मुझे अनुभव भी होता है।परमसत्ता के संबंध में कहा गया है :--
  ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णातपूर्णमुदच्यते। 
   पूर्णस्य   पूर्णमादाय   पूर्णमेवावशिष्यते। 
अर्थात सृजन सूक्ष्म से स्थूल का हुआ है। उपरोक्त से स्वतः स्पष्ट है कि परब्रह्म पूर्ण है और उस पूर्ण से ही जीव, जंतु,शरीर व् जगत आदि का सृजन हुआ है।आत्मा को परब्रह्म का ही स्वरूप माना गया है।
आत्मा नियन्ता और अंतर्वर्ती है तथा शरीर बाह्य और नियम्य है। इन दोनों की जो एकता दिखलाई पड़ती है वह केवल अज्ञान है। आत्मा ज्ञानस्वरूप और पवित्र मानी गयी है तथा यह शरीर मांसादि से निर्मित अपवित्र। इन दोनों को एक समझ लेना मात्र अज्ञानता है। आत्मा सभी का प्रकाशक है ,निर्मल है तथा शरीर तमोमय है। आत्मा शुद्ध है तथा इन्द्रिय,मन,बुद्धि सभी जड़ हैं। आत्मा पर वासना का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है जबकि मन शरीर वासनाग्रस्त होती हैं ,ऐसा मुझे अनुभव होता है।
                 आत्मा नित्यो हि सद्रूपो देहो अनित्यो ह्यसंमयाः।
                 तयोरैक्यं   प्रपश्यन्ति   किमज्ञानमतः  परम्।
 आत्मा नित्य और सत्स्वरूप है तथा शरीर अनित्य और असत है। इन दोनों को एक मान लेना अज्ञान है। संसार के अन्य पदार्थों का जो भी ज्ञान हमें होता है उसकी प्राप्ति में आत्मा का ही प्रकाशत्व है किन्तु आत्मज्योति अग्नि आदि की ज्योति के समान नहीं है क्योंकि उसके आभाव में तो रात्रि के समय अंधकार दिखाई पड़ने लगता है जबकि आत्मज्योति का कभी भी अभाव नहीं महशूस होता है।
              ज्ञान का स्वरूप ---
          ब्रह्मैवाहं समः शान्तः सच्चिदानन्दलक्षणः। 
           नाहं   देहो  ह्यसद्रूपो    ज्ञानमित्युच्यते।
मैं सम ,शान्त  और सच्चिदानन्दस्वरूप  ब्रह्म ही हूँ ,असतस्वरूप  शरीर मैं नहीं हूँ। प्रश्न उठता है कि यदि मैं शरीर नहीं हूँ तो फिर क्या हूँ ? शरीर को आत्मा मान लेने से प्रश्न उठता है कि जब आत्मा ज्ञाता है और शरीर ज्ञेय है तो शरीर और आत्मा  को एक कैसे माना जा सकता है जबकि मैं ब्रह्म हूँ,शुद्ध चेतना हूँ ।अतः विभिन्न रूपों में दृश्य यह शरीर मैं नहीं हूँ। मैं वह परात्पर चेतना हूँ जो सदा सर्वत्र विद्यमान है और उसी से यह शरीर प्रकाशित हो रहा है। विचार प्रक्रिया में यह प्रश्न उठता है कि यदि मैं शरीर नहीं हूँ तो क्या शून्य हूँ ? वेदान्त  में इस शून्य को ब्रह्म माना गया है आत्मा एवं ब्रह्म की एकता का कथन भी हमें वेद,उपनिषद एवं वेदांत दर्शन में किया गया है। अतःमैं अर्थात आत्मा  निर्विकार,निराकार,निर्मल और अविनाशी हूँ और असतस्वरूप इस नश्वर शरीर से भिन्न हूँ। मैं दुःखहीन,आभास हीन,विकल्पहीन और व्यापक हूँ। यह भी आभास होता है कि मैं अपने वास्तविक स्वरूप में निर्गुण,निष्क्रिय,नित्य,नित्यमुक्त और अच्युत हूँ। आत्मा में कोई भी गुण नहीं हैं क्योंकि गुण तो रासायनिक द्रव्य में होते हैं। चूँकि संसार के सभी द्रव्य नाशवान हैं इसीलिए आत्मा निर्गुण है। शरीर,मन एवं बुद्धि अपना कार्यव्यापार बदलते रहते हैं किन्तु मैं अर्थात आत्मा में कोई भी परिवर्तन नहीं होता है। मैं इन उपकरणों में होने वाले परिवर्तनों का प्रकाशक हूँ। मुझ आत्मतत्व में कोई भी क्रिया नहीं होती है किन्तु मैं सभी क्रियाओं में विद्यमान हूँ। शरीर,मन एवं बुद्धि में होने वाली सभी क्रियाएं मेरे संरक्षण में होती हैं। इसीलिए मैं नित्यमुक्त हूँ। निद्रा के समय स्वप्न में भी मुझे यह आभास होता है कि मैं हूँ। किसी बंधन से ग्रस्त न होने के कारण मैं अच्युत भी हूँ। अतः मैं निर्मल ,निश्चल,सुद्ध,अजर व अमर हूँ। 
बौद्ध दर्शन का तर्क है कि जब मैं न शरीर हूँ ,न मन हूँ ,न बुद्धि हूँ ,न ही वस्तु हूँ ,न भावना हूँ और न ही विचार हूँ तो क्या मैं शून्य हूँ ? आगे वे यह भी कहते हैं कि सभी के निषेध से अंत में शून्यत्व का हीआभास होता है। इसे वे असतवाद कहते हैं। जबकि सतवादी सम्प्रदाय ब्रह्म का अस्तित्व मानते हैं। वे सभी वस्तुओं,जीवों में "है पन" अर्थात अस्तित्व को ब्रह्म बताते हैं।  वेदांत ने भी इसी तथ्य को माना है।
शंकराचार्य जी कहते हैं कि मूर्ख अपने शरीर में पुरुष नामक सुंदर देहातीत और शास्त्रसम्मत आत्मा के रहते हुए तू उसे शून्य क्यों कहता है ? आत्मा की स्वतःसिद्ध सत्ता का निषेध करने वालों के प्रति वे कहते हैं ---पश्यन्नपि न पश्यति मूढाः। अर्थात देखते हुए भी मूढ़ लोग उसे नहीं देखते। आत्मा का निषेध करने वाला स्वयं अपनी सत्ता को जब सिद्ध कर रहा है तो उसे आत्मा कह लेना सर्वथा उपयुक्त होगा। आत्मा वः चेतन तत्व है जो अस्तित्व और अनस्तित्व दोनों का ज्ञाता है।अतः यह सिद्ध होता है कि मैं परमात्मा में स्थित हूँ और स्थूल शरीर पुरुष नहीं हो सकता है।शंकराचार्य जी ने भी कहा है :---
 इत्यात्मदेहभावेन   प्रपञ्चस्यैव   सत्यता। 
यथोक्ता तर्कशास्त्रेण ततः किं पुरुषार्थता। 
इस प्रकार देह और आत्मा में भेद करने से भी जैसे तर्कशास्त्रों में भी प्रतिपादन किया है। प्रपंच की सत्यता तो रहती ही है ,इससे क्या पुरुषार्थ सिद्ध हुआ ?
प्रकृति और पुरुष दो भिन्न तत्व हैं जैसाकि द्वैतवादी मानते हैं। वे इन दोनों को सत्य मानते हैं। जैसे चेतना नित्य है वैसे ही प्रकृति भी नित्य हैं। अद्वैत के अतिरिक्त  दर्शन तथा अन्य दर्शन इस तथ्य को स्वीकार करते है। .यहां तक आत्मा और देह का भेद दिखाकर देहात्मभाव का निराकरण किया गया है। अब देह-भेद के असत्यत्व का स्पष्ट वर्णन करते हुए तथा भौतिक शरीर और चेतनस्वरूप आत्मा के लक्षणों के संदर्भ में हुए बताया गया कि आत्मा शरीर से सर्वथा भिन्न है और शरीर स्वयं आत्मा नहीं है। ऐसा इसलिए कहा गया क्योंकि शरीर नश्वर है,जड़,विकारी और अनित्य है किन्तु आत्मा नित्य,अव्यय,अविनाशी और शाश्वत है।
चेतनस्यैकरूपत्वादभेदो युक्तो न कहिंचत। 
जीवत्वं च  मृषा  ज्ञेयं  रज्जौ  सर्पगृहो  यथा।
अर्थात चेतना एकरूप है,अतः उसका भेद किसी प्रकार उचित नहीं हो सकता। जैसे रज्जु में सर्प  प्रतीति मिथ्या है उसी तरह जीवभाव को भी मिथ्या मान लेना चाहिए। वह हम तुम और चराचर में सर्वत्र विद्यमान है। चेतना में कोई भेद नहीं है।शुद्ध चेतना सदा एक अद्वितीय है। सूर्य का प्रकाश अमीर व् गरीब सभी के लिए एक समान है। सूर्य के प्रकाश में प्रकाशित वस्तुओं में भेद अवश्य है किन्तु प्रकाश में नहीं। अतः यदि यह चेतनस्वरूप आत्मा एक व् अद्वितीय है तो वैयक्तिक रूप में यह समझना कि मैं शरीर हूँ,मन हूँ,बुद्धि हूँ, द्रष्टा हूँ,अनुभवकर्ता हूँ,विचारक हूँ सब मिथ्या है। जाग्रत पुरुष समझता है कि स्वप्न शरीर,स्वप्न मन,स्वप्न बुद्धि,और स्वप्न की समस्त वस्तुएं,भावनाएं और विचार सब मिथ्या हैं क्योंकि स्वप्न ही मिथ्या है। जैसे संध्याकाल के धुंधले प्रकाश में रस्सी में हमें सर्प का भान होता है वैसे ही अविद्या की धुंधली चेतना में हम सत्य को शरीर ,मन ,बुद्धि और भौतिक जगत समझने की भूल कर लेते हैं। रस्सी में सर्प केवल हमारे मन की कल्पना मात्र है। ऐसे ही आत्मा ही एकमात्र सत्य है। मन और बुद्धि द्वारा रचा हुआ यह दिखाई अवश्य पड़ता है।
मैं वही हूँ, वही मेरा वास्तविक स्वरूप है और वही सब कुछ है तथा उसी में सब कुछ है। यह रहस्यात्मक अव्यक्त स्थिति योगियों के मध्य परम् साम्यरुप, ज्ञानियों के समाज में पूर्ण ब्रह्म तथा रसिक मण्डल में रसरूप में अंतर्व्याप्त है। इसी को सच्चिदानन्द की स्वरूप स्थिति और स्वरूप लीला दोनों कहा जाता है।वस्तुतः यह विशुद्ध सत्वमय महामाया का उन्मेष मात्र है जिसके प्रभाव से परब्रह्म के स्वरूप का संधान,ज्ञान और साक्षात्कार होता है। दूसरे शब्दों में यह नित्य शुद्ध अवस्था है किन्तु बौद्धिक स्तर पर यह चरम स्थिति परक्षणवर्ती के रूप में प्रतिभासित होती है। वह चरमस्थिति स्वयं प्रकाश बोधरूप है किन्तु इसमें अन्तर्विश्लेषण रूपी स्व -स्वरूप का अवधान या अनवधान कुछ भी नहीं रहता है। पूर्णानन्द  की स्थिति चित और  सत की अभिव्यक्ति है किन्तु महामाया और माया की स्थिति के ऊपर स्पन्दन के उदय या प्रणव के प्रकाश से एकओर चित और दूसरी ओर सत से चित का विभाग दृष्टिगत होता है।
"ब्रह्मास्मि" या "अयमात्मा ब्रह्म" का बोध परमेश्वर का अपने स्वरूप का ज्ञान या महामाया है। जिस भी स्थिति से इस ज्ञान का तिरोधान होता है उसमें स्वप्रकाश अद्वयज्ञान मात्र का प्रकाश रहता है जो तत्त्वातीत परमतत्व है। शास्त्रों का अभिमत है कि सब कुछ आत्मा ही है ,इसीलिए जगत और ब्रह्म का व्याप्य और व्यापक भाव मिथ्या है। इस परम् तत्व के जान लेने पर फिर भेद का अवसर ही कहाँ रह जाता है। श्रुतियों में भी कहा गया है कि ब्रह्म समस्त विश्व में व्याप्त है और जगत के सभी प्राणी और वस्तुएं ब्रह्म से व्याप्य हैं। जैसे चीनी के दाने में चीनी सर्वत्र व्याप्त है अर्थात चीनी का दाना चीनी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इसी प्रकार ब्रह्म जगत के सभी नमरूपों में व्याप्त है। हमें जगत का नानात्व दिखलाई पड़ता है इसीलिए हम नाना रूप जगत की सत्ता स्वीकार करते हैं। हमें ऐसा अनुभव होता है कि नानारूप जगत में ब्रह्म व्याप्त है या इसे आच्छादित किये है। वस्तुतः व्याप्य और व्यापकता का समबन्ध मिथ्या है। ब्रह्मज्ञान होने पर व्याप्य और व्यापकता का भेद विलीन हो जाता है और उस अवस्था में एक ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रह जाता है।
जगत की ब्रह्मरूपता :---
आचार्य शंकर का कथन है :--
ब्रह्मणः सर्वभूतानि  जायन्ते  परमात्मनः। 
तस्मादेतानि ब्रहमैव भवन्तीत्यवधारयेत।
सम्पूर्ण भूत परमात्मा ब्रह्म से ही उत्पन्न होते हैं अतः वे सब ब्रह्म ही हैं ,ऐसा निश्चय करना चाहिए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि दृश्य जगत का नानात्व और कुछ नहीं बल्कि चेतन ब्रह्म ही है। तैत्तिरीय उपनिषद में भी कहा गया है कि ब्रह्म से सब कुछ उत्पन्न हुआ है। ब्रह्म में ही सब कुछ स्थित है और अंततः ब्रह्म में सब कुछ विलीन हो जाता है। आगे चलकर श्रुतियों में यह भी कहा गया है कि समस्त नाम,विविध रूप और सम्पूर्ण कर्मों को ब्रह्म ही धारण करता है। जिस प्रकार स्वर्ण निर्मित वस्तुओं की सुवर्णता निरंतर रहती है उसी प्रकार ब्रह्म से उत्पन्न हुए पदार्थों की ब्रह्मता भी नित्य है।
यत्राज्ञानादभवेद द्वैतमितिरस्तत्र पश्यति। 
आत्मत्वेन  यदा सर्वं  नेतरस्तत्र   चांवपि। 
अर्थात जहां भी अज्ञान से द्वैतभाव होता है वहां कोई और दिखलायी पड़ता है। जब सब कुछ आत्मरूप दिखायी देता है तब अन्यत्र कुछ भी नहीं रहता। वृहदारण्यक उपनिषद ने भी कहा गया है:--- अयमात्मा हि ब्रह्मैव सर्वात्मकतया स्थितः। 
मिथ्या जगत की अवधारणा :--- 
शंकराचार्य जी का अभिमत है कि दूसरे क्षण में न रहने के कारण जैसे स्वप्न असत है वैसे ही यह संसार व्यवहारयोग्य और अनुभव होता हुआ भी असत है। यद्यपि इस जगत का व्यावहारिक मूल्य अवश्य है किन्तु इसे मिथ्या ही समझना चाहिए। इस जगत के अनुभव स्वप्न के समान हैं हम यह तर्क कर सकते हैं कि जगत का हमें प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है और उससे हम व्यवहार भी कर रहें हैं, तब मिथ्या कैसे ?शंकराचार्य जी कथन है की यह सब माया का चमत्कार है ,स्वप्न दिखाई भी पड़ता है और उसमें हम व्यवहार भी करते हैं तब भी जागने पर वह मिथ्या  ही प्रतीत होता है। आत्मज्ञान की अवस्था में यह जगत भी मिथ्या ही लगने लगता है।
सत की परिभाषा से स्पष्ट होता है कि सत का अभिप्राय त्रिकाल अर्थात भूत,भविष्य और वर्तमान काल में में निर्विकार रूप से विद्यमान रहना। जगत असत नहीं इसलिए इसका निषेध भी नहीं किया जा सकता है। जाग्रतावस्था का जगत स्वप्नकाल में दृष्टिगत नहीं होता इसलिए स्वप्नजगत की अपेक्षा से जाग्रत जगत सत्य नहीं है। सुषुप्ति में स्वप्न और जाग्रत दोनों जगत नहीं रहते अतः जाग्रत पुरुष और जाग्रत जगत  जाग्रत अवस्था में सत्य हैं। इसी तरह स्वप्न पुरुष औरजगत केवल स्वप्नावस्था में ही सत्य हैं। सुषुप्त पुरुष और सुषुप्ति गहन निद्रा में ही सत्य है। जाग्रतावस्था में स्वप्न प्रुरुष और सुषुप्त पुरुष अनुपलब्ध हो जाते हैं। स्वप्न में जाग्रत पुरुष और सुषुप्त पुरुष नहीं रह जाते और सुषुप्ति में जाग्रत पुरुष एवं स्वप्न पुरुष नहीं रह जाते हैं। इस प्रकार अनुभव की प्रत्येक अवस्था का निषेध दूसरी अवस्था में स्वतः निषेध हो जाता है। अतः वे सत की परिभाषा में नहीं आ पाते।इस प्रकार सत ,रज एवं तम गुणों से उत्पन्न हुई ये तीनों अवस्थाएं मिथ्या हैं किन्तु इनका द्रष्टा गुणों से परे  नित्य एक और चित्स्वरूप सत्ता है 'जागृति ,स्वप्न एवं सुषुप्ति तीनों अवस्थाएं तत्वज्ञान होने पर मिथ्या सिद्ध हो जाती हैं क्योंकि ये प्रतीति मात्र हैं ,परम् सत में उनकी कोई सत्ता नहीं है। .सर्प में रज्जु की प्रतीति मानसिक भ्रम के कारण ही होती है.अतः ये तीनों अवस्थाएं मानसिक भ्रम की काल्पनिक आभासमात्र हैं। जिस चेतना के प्रकाश में ये तीनों अवस्थाएं प्रकाशित होती हैं वह त्रिकाल में विद्यमान रहता है और वह चेतना है "मैं हूँ"अर्थात आत्मसत्ता।जिस प्रकार मनुष्य भ्रमवश मिटटी में घड़ा और सीपी में चाँदी देखता है उसी तरह वह भ्रम से ब्रह्म में जीवभाव देखता है। इस प्रकार अज्ञान के कारण नानारूप जगत मानसिक कल्पना से उत्पन्न केवल एक भ्रम है। स्वप्न पुरुष को यह नहीं ज्ञात होता कि वह जाग्रत पुरुष है ,केवल वह अज्ञान के कारण स्वप्न पुरुष एवं स्वप्न जगत को सत्य मान लेता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि जगत की सत्य प्रतीति कैसे और क्यों होती है ? इसके प्रश्नोत्तर में कहा जाता है कि जिस प्रकार आकाश में नीलापन ,मरुभूमि में जल और ठूँठ में पुरुष की प्रतीति होती है ,उसी प्रकार चेतन आत्मा में विश्व या जगत की प्रतीति होती है। शंकराचार्य जी ने कहा है :--
 घटनाम्ना यथा पृथ्वी पटनाम्ना हि तन्तवः। 
   जगनाम्ना  चिदाभाति  ज्ञेयं  तत्तभावतः।
अर्थात जिस प्रकार घट नाम से पृथ्वी और पट नाम से तंतु का आभास होता है उसी प्रकार जगत नाम से चिद्शक्ति भास रही है। अतः उस जगत का बाध करके उसे जानना चाहिए।आकाश नील रंग का दिखायी तो पड़ता है किन्तु आकाश में कोई नीलापन नहीं है बल्कि वह केवल भ्रान्ति मात्र है। इसीप्रका मरुस्थल में जल की प्रतीति होती है जबकि वहां जल वास्तव में नहीं है। केवल दिखलायी पड़ने के कारण स्थाणु में कोई विकार नहीं होता है। जगत की सत्ता केवल द्रष्टा के मन में है। अतः यह सिद्ध हो गया कि सत्य की अप्रतीति के कारण जगत के द्वैत की अन्यथा प्रतीति हो जाती है।
जगत में सर्वत्र सत्ता रूप में सूक्ष्मभाव से सभी पदार्थ विद्यमान रहते हैं परन्तु जिसकी मात्रा अधिक प्रस्फुटित हो जाती है वही अभिव्यक्त और इन्द्रियगोचर होता है और जिसका ऐसा नहीं होता है वह अभिव्यक्त नहीं होता है। इस व्यवहार जगत में जिस पदार्थ को जिस रूप में पहचानते हैं वह उसकी आपेक्षिक सत्ता मात्र है। हम जिस रूप में जिसे जितना पहचानते हैं वह उतना ही है ,यह प्रमाणिक नहीं है। लोहे का टुकड़ा केवल लोहा ही है ,यह सत्य नहीं क्योंकि लोहे से ही विविध अन्य घातुएँ निर्मित होते हुए हम देखते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि लोहे में अन्य प्रकृति भी अव्यक्त रूप में निहित है। लौहभाव की प्रधानता से अन्य समस्त भाव या तत्व उसमें विलीन प्रतीत होते हैं। योगियों ने इसे मूल पृथक्त्व कहकर अव्यक्त भाव से बीज रूप में पृथकता की सत्ता स्वीकार की है।लोहे में जो स्वर्ण प्रकृति है वह आवरण से ढकी रहती है और लौह प्रकृति आवरण से मुक्त रहती है। इसे प्रकृति विद्या माना  गया है। स्वामी विशुद्धानन्द जी का अभिमत है कि संसार में प्रकृति का ऐसा ही खेल चल रहा है। जो इस खेल के मर्म और तत्व को जानता है,वही ज्ञानी है। अज्ञानी इस खेल से मोहित होकर आत्मविस्मृत हो जाते हैं। उन्होंने योग के बिना इस ज्ञान को असंभव बताया।
स्वामी विशुद्धानन्द जी ने माना कि  जगत का प्रसविता है। जो व्यक्ति सूर्य की रश्मि अथवा वर्णमाला को भलीभांति पहचान लेता है वह सहज ही संसार के सभी पदार्थों का संघटन और विघटन करके उसके मूलतत्व को पहचान सकता है। उनके अनुसार सभी पदार्थों का मूल बीज इस रश्मिमाला के विभिन्न प्रकार के संयोग से उत्पन्न  हुआ है। तत्ववस्तु को सामान्य रूप से जानने को ज्ञान कहते हैं और उसके अशेष -विशेष को जानकर उसे सम्पूर्ण रूप से अधीन करने की कला को विज्ञानं कहा जाता है। ज्ञान के द्वारा परमात्मा की तुरीय भूमि तक पहुंचा जा सकता है किन्तु तुर्यातीत महाशक्ति का स्वरूप समझने के लिए विज्ञानं का सहारा लेना पड़ता है ज्ञान और विज्ञानं का परस्पर संबंध किस प्रकार का है ,इसे समझने के लिए एक उदाहरण यह है कि शिशु जबतक अपनी माता का हाथ पकड़कर चलता रहता है तबतक उसके गिरने की संभावना रहती है क्योंकि दुर्बल मुट्ठी से शिशु का हाथ छूट सकता है किन्तु जब परमात्मा स्वयं शिशु का हाथ पकड़ लें तो गिरने का कोई कारण शेष नहीं रह जाता है।
सूर्योपनिषद में सूर्य को जगत की उत्पत्ति का हेतु होने का वर्णन मिलता है:--
सूर्याद भवन्ति भूतानि  सूर्येण पालितानितु। 
सूर्ये लयं प्राप्नुवन्ति यः सूर्यः सोहमेव च। 
मैत्री उपनिषद में भी कहा गया है :--
सविता सर्वभावानां  सर्वभावांश्च सूयते। 
सविनात प्रेरणाच्चैव सविता तेनचोच्यते।
वास्तव में सूर्यमंडल तक ही जगत है। सूर्यमंडल का भेद किये बिना परमसत्ता का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। वस्तुतः सूर्यमंडल तक ही वेद या शब्दब्रह्म है ,उसके बाद सत्यब्रह्म है। अतः शब्दब्रह्म का अतिक्रमण किये बिना सत्य तक पहुंचना संभव नहीं प्रतीत होता। जैसे स्वप्न में देखे जाने वाले पदार्थ के साथ उसके देखने वाले का कोई संबंध नहीं होता उसी प्रकार देहादि से अतीत अनुभवस्वरूप आत्मा का माया के बिना दृश्य पदार्थों के साथ कोई संबंध नहीं हो सकता है। बहुआयामी माया के कारण ही यह जगत भी बहुआयामी दिखाई पड़ता है और जब उसके गुणों की पहचान हो जाती है तो मैं हूँ ,यह मेरा है आदि के भाव उत्पन्न होते हैं। जब गुणों को क्षुब्ध करने वाले काल और मोह उत्पन्न करने वाली माया दोनों के परे जाकर अपने अनन्तस्वरूप में मोहरहित होकर रमन करने लगता है तो वह आत्ममय हो जाता है और तभी वह मैं और मेरा के भाव को छोड़कर पूर्ण उदासीन होकर गुणातीत हो जाता है।
ब्रह्म की सर्वात्मकता :-
मानव का जो भी व्यवहार होता है वह सब ब्रह्म ही की सत्ता से होता है किन्तु वे अज्ञानवश यह नहीं जान पाते जैसे घड़े का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करना।जैसे घटादि में कारणरूप से मृत्तिका सदैव रहती है वैसे ही ब्रह्म भी संसार में सर्वत्र विद्यमान हैं। समस्त संसार में कार्य -कारण संबंध दिखाई पड़ता है। सभी वैज्ञानिक सिद्धांत इसी सत्य पर आश्रित हैं कि सम्पूर्ण दृश्य जगत में कार्य -कारण का नियम विद्यमान है। यह संबंध जगत और ब्रह्म के बीच भी दृष्टिगत होता है। जगत की उत्पत्ति ब्रह्म से होने के कारण वह ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता। ब्रह्म से घनीभूत होने के कारण ही यह विश्वरूप में दिखाई पड़ता है ब्रह्म ही भिन्न रूपों में पदार्थ और ऊर्जा दोनों है। छान्दोग्य उपनिषद में "सर्व खलु इदं ब्रह्म "कहकर इसका समाधान कर दिया गया है।
सदैवात्मा  विशुद्धोपि ह्यशुद्धो  भाति वै सदा। 
यथैव द्विविधा रज्जुरज्ञानिनो ज्ञानिनो अनिशम। 
अर्थात आत्मा नित्य शुद्ध है फिर भी वह सर्वदा अशुद्ध प्रतीत होती है जैसेकि एक ही रज्जु ज्ञानी और अज्ञानी को सदा दो प्रकार से दिखाई पड़ती है। कारण यह है कि हमारे मन बुद्धि के उपकरण सत्य को न समझ पाने के कारण नानारूप जगत की कल्पना कर लेते हैं। इस अवस्था में मैं अज्ञानी हूँ ,यह तथ्य  समझ में आ जाने पर कि जगत ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ नहीं है,मैं स्वयं ज्ञानी पुरुष हो जाऊंगा। शरीर,मन,बुद्धि के उपकरणों द्वारा सत्य को देखने पर मैं द्रष्टा,भावक और विचारक बन जाता हूँ और मैं वस्तु,भावना और विचार देखने लगता हूँ। जिस प्रकार घड़ा मिट्टीरूप होता है उसी प्रकार शरीर भी चेतनरूप है। अज्ञानीजन व्यर्थ ही आत्मा और अनात्मा का भेद करते हैं। कार्य कारण का ही भिन्न रूप होता है अतः कार्यरूप घट कारणरूप मिटटी से भिन्न नहीं है। आत्मा ही जब भौतिक रूप में दिखाई पड़ने लगता है तो हम उसे शरीर नाम से सम्बोधित करने लगते हैं किन्तु मन और बुद्धि से ऊपर उठने पर ज्ञात होता है कि वे सब ब्रह्म में ही विलीन होकर एक हो जाते हैं।
यथा शशी जले भाति चञ्चलत्वे न कस्यचित। 
तद्वदात्मनि   देहत्वं    पश्यत्यज्ञानयोगतः।
जिस प्रकार स्थाणु की सत्यता का ज्ञान हो जाने पर चोर की कल्पना समाप्त हो जाती है उसी प्रकार अपरोक्ष ज्ञान हो जाने पर उसके पूर्व कल्पित शरीर,मन,बुद्धि,द्रष्टा,भावक,विचारक एवं वस्तु-भावना -विचार आदि सभी आत्मा में ही विलीन हो जाते हैं और उसे एक अद्वितीय सत्ता मानने लगते हैं।महर्षि कपिल ने बताया कि आत्मदर्शन ज्ञान ही पुरुष के मोक्ष का कारण है  वही उसकी अहंकार रूपी हृदय ग्रंथि का छेदन करने वाला है। जगत के संबंध में उन्होंने बताया कि  सम्पूर्ण जगत जिससे व्याप्त होकर प्रकाशित होता है वह आत्मा ही पुरुष है। वह अनादि,निर्गुण,प्रकृति से परे,और अन्तःकरण में स्फुरित होने वाला स्वयंप्रकाश है। उस सर्वव्यापक पुरुष ने अपने पास लीला विलासपूर्वक आयी हुई अव्यक्त और त्रिगुणात्मिका वैष्णवी माया को स्वेच्छा से स्वीकार लिया और लीला परायन  प्रकृति ने सत्वादि गुणों द्वारा उन्हीं के अनुरूप प्रजा की सृष्टि करने लगी.यह देखकर पुरुष ज्ञान को आच्छादित करने वाली उसकी आवरण शक्ति से मोहित हो गया और अपने स्वरूप को ही भूल गया। इस प्रकार अपने से भिन्न प्रकृति को ही अपना स्वरूप समझ लेने से प्रुरुष प्रकृति के गुणों दवरा किये जाने वाले कर्मों में अपने को ही कर्ता  मानने लगा और इसी अभिमान से ही अकर्ता,स्वाधीन,साक्षी और आनंदस्वरूप प्रुरुष को जन्म मृत्यु रूप बंधन एवं परतंत्रता की प्राप्ति कर ली। कार्यरूप शरीर कारणरूप इन्द्रिय तथा कर्तारूप इन्द्रियाधिष्ठातृ देवताओं में पुरुष जो अपनापन समझने लगता है,उसमें प्रकृति को कारण मानते हैं किन्तु वास्तव में प्रकृति से परे होकर भी जो प्रकृतिस्थ हो रहा है उस पुरुष को सुख एवं दुःख के भोगने का कारण मान लेते हैं।
जो त्रिगुणात्मक,अव्यक्त,नित्य और कार्य कारण रूप है  तथा स्वयं निर्विशेष होकर भी सम्पूर्ण विशेष धर्मों का आश्रय है ,उस प्रधान तत्व को ही प्रकृति कहते हैं। पांच महाभूत,पांच तन्मात्रा,चार अन्तःकरण और दस इन्द्रिय इन चौबीस तत्वों के समूह को प्रकृति का कार्य माना जाता है। पृथ्वी,जल,तेज,वायु और आकाश ,ये पांच महाभूत हैं।गंध,रस,रूप,स्पर्शऔर शब्द ये पांच तन्मात्र माने जाते हैं। कान,त्वचा,चक्षु,रसना,नासिका,वाक्,पाणि,पाद,उपस्थ और पायु ये दस इन्द्रियां हैं.मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार इन चारों में एक ही अन्तःकरण अपनी संकल्प,निश्चय,चिंता और अभिमान रूपी चार प्रकार की वृत्तियों से लक्षित होता है।
उपर्युक्त कथन से से यह स्वतःसिद्ध कि एक निर्विकार,नित्य,विज्ञानानन्दघन परब्रह्म परमात्मा ही है और उन्हीं में प्रकृति और पुरुष दोनों समाहित हैं। परब्रह्म में समाविष्ट प्रकृति को ही माया अथवा शक्ति के नाम से जाना जाता है। वेदों में परब्रह्म के दो विभिन्न स्वरूप बताये गए हैं। प्रथम प्रकृतिरहित ब्रह्म को निर्गुण उपाधि दी गयी है तो द्वितीय जिस अंश में प्रकृति या त्रिगुणमयी माया विद्यमान है उस प्रकृति सहित ब्रह्म के  सगुण बताया गया है। सगुण ब्रह्म के भी दो भेद मने गए हैं ---एक निराकार और दूसरा साकार। उस निराकार सगुण ब्रह्म को ही महेश्वर ,परमेश्वर आदि नामों से जाना जाता है। वही  सर्वव्यापी,निराकार,सृष्टिकर्ता परमेश्वर स्वयं ब्रह्मा,विष्णु,महेश इन तीन रूपों में प्रकट होकर सृष्टि की उत्पत्ति,पालन और संहार किया करते हैं। इस प्रकार पांच रूपों में विभक्त परात्पर परब्रह्म परमात्मा को ही शिवतत्व कहा जाता है ।
शिव के उपासक शिव,विष्णु के उपासक विष्णु,और शक्ति के उपासक महाशक्ति के नाम से जानते हैं.. यहां अव्यक्त से निर्विकार नित्य,शुद्ध परमात्मा का निर्गुण स्वरूप तथा व्यक्त से सगुण स्वरूप समझना चाहिए.शिव को प्राणियों के अंतिम विश्राम के स्थान के रूप में जाना जाता है। कहा गया है --शेरते प्राणिनो यत्र स शिवः। जाग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं से रहित स्वप्रकाश स्वरूप परब्रह्म ही शिवतत्व हैऔर वही अपनी दिव्य शक्तियों से युक्त होकर अनंत ब्रह्माण्डों का उत्पादन,पालन और संहार करते हुए ब्रह्मा विष्णु और शिव विविध संज्ञाओं को धारण करते हैं।
सर्वभूतेषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः 
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता। 
मम योनिर्महद ब्रह्म तस्मिन् गर्भ दधाम्यहम। 
सम्भवः  सर्वभूतानां ततो  भवति  भारत। 
श्रीकृष्ण भगवान ने स्वयं कहा है ---प्रकृति रूप योनि में जब मैं गर्भाधान करता हूँ तब उससे समस्त विश्व की उत्पत्ति होती है। श्रुतिओं में भी बताया गया ---यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते,येन जातानि जीवन्ति,यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। इस कथन में ब्रह्म का जो लक्षण बताया गया है उससे विश्व के सर्जक,पालक एवं संहार सभी को उन्हीं में समाहित समझना चाहिए। इसी से एकेश्वरवाद की भी पुष्टि होती है।
भगवान के निःश्वास से ही वेदों का प्रादुर्भाव हुआ है। उनके वीक्षण अर्थात देखने से आकाशादि अपंचीकृत पंचमहाभूत की सृष्टि हुई और उनके मुस्कान से यह भौतिक अनंत ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ। उनकी सुप्ति से ही ब्रह्माण्ड का प्रलय हो जाता है। इस दृष्टि से एक ब्रह्माण्ड के उत्पादक ,पालक संहारक ब्रह्मा,विष्णु और शिव के अतिरिक्त निखिल ब्रह्माण्डों के उत्पादक,पालक,संहारक ब्रह्मा,विष्णु एवं शिव में कोई भी भेद नहीं है। जिस प्रकार आकाश में स्थित एक ही सूर्य अनेकों पोखरों में अलग अलग प्रतीत होता है। इन सभी प्रतिबिम्बों का मूलभुत बिम्ब एक ही है जो शिव भक्तों को शिवरूप,विष्णु भक्तों को विष्णुरूप और रामभक्तों को रामरूप से दृष्टिगोचर होता है। यह उसी प्रकार से है जैसे एक ही गगनस्थ सूर्य को नीले चश्में से नीला, पीले से पीला और लाल से लाल दिखाई देता है।
हमारे अपने जीवन का केंद्रीय तत्व प्रकाशपूर्ण है।यद्यपि यह निर्विकार,अपरिणामी ,क्रियाशून्य एवं असंग है फिर भी उसके सानिध्य में अनेकों प्रकार की सक्रियताएं निरन्तर प्रवाहित होती रहतीं हैं। उसकी उपस्थिति में ही सभी घटनाएं घटित होती रहतीं हैं। इस सत्य को जानने हेतु हम इस उदाहरण का आश्रय लेते हैं जिसमें बताया गया है कि जैसे हमारे घर में दीपक,बल्ब अथवा ट्यूबलाइट जलती है और उसके प्रकाश में घर के सभी लोग अपना कार्य करते रहते हैं। प्रकाश के आभाव में शायद यह सम्भव न हो पाता।प्रकाश की इसी उपस्थिति की ही भांति हमारे जीवन में हमारी आत्मा अथवा पुरुष की उपस्थिति होती है। जिस प्रकार प्रकाश उपस्थित होते हुए भी किसी की गतिविधि में न तो सक्रिय होता है और न ही सहभागी। ठीक इसी तरह पुरुष अथवा आत्मा की उपस्थिति जीवन के लिए आवश्यक है। इसकी उपस्थिति में ही यह शरीर,प्राण,मन और चित्त भी सक्रिय हो पाता है।जड़ प्रकाशश्रोत प्रकाश बिखेरते समय कुछ नहीं करता है किन्तु आत्मा की उपस्थिति में जीवन के प्रत्येक घटक को उसकी अपनी क्षमता, बनावट के अनुसार बल,विवेक,विचार एवं शक्तियां प्राप्त होती रहतीं हैं। चेतन पुरुष यथासमय चित्त से तादात्म्य संबन्ध स्थापित कर लेता है। तब वः करता कहलाने लगता है और उसी समय अस्मिता के रूप में "मैं "भी प्रकट हो जाता है। इस गहनता में पहुँचने पर वह पुनः साक्षी अथवा द्रष्टा बन जाता है। तब वह  जीवन के प्रत्येक आयाम में होने वाली गतिविधियों का न तो कर्ता होता है और न ही भोक्ता। तदाकार होने के सूत्र को तोड़कर अपनी तादात्म्यता को विसर्जित कर वह फिर से असंग ,निर्विकार व स्वयं में स्थित हो जाता है। ऐसी अवस्था में अविद्याजन्य कोई भी भ्रम उसमें व्याप्त नहीं रह पाता। तब वह राग द्धेष रहित हो जाता है और इनसे होने वाले सुख व् दुःख से भी वह रहित हो जाता है। साक्षी भाव में स्थित होते ही तादात्म्यता की स्थिति की सभी कठिनाइयाँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं और भ्राँतियों का अन्धकार समाप्त हो जाता है तथा वह अपने में स्थित होकर प्रकाशपूर्ण हो जाता है।