कैसा है आयाम तेरा और कैसा तेरा रूप है |
जीवन मुझको लगता जैसे सचमुच मूक है ||
बचपन में जो सौम्य सरसता खुशियों में संजोये था|
क्रोध मोह और ईर्ष्या से संभाव शून्य मग खोये था ||
आ करके किशोरावस्था में वही बसंत बन आया है |
तन मन का आनंद श्रोत बनकर उपवन में छाया है ||
बना गया मधुमास वहीं जब पाया समरूप है |
जीवन मुझको लगता जैसे सचमुच मूक है ||
तरुण काल में जीवन ही जब संघर्ष रूप ले लेता है |
अब तक जो कुछ पाया था उसको नीरस कर देता है ||
वृद्धावस्था में जीवन सिर पर चढ़कर भार बढ़ाता है |
जीवन को मृत्यु- शैय्या तक बरबस ही ले जाता है ||
समझ न पाया अब तक तेरे कितने रूप है |
जीवन मुझको लगता जैसे सचमुच मूक है ||
सचमुच है आश्चर्य आज भी प्रश्न चिहन सा लगता है |
जीवन क्या हैऔर कैसे है यह भी रहस्य सा लगता है ||
होकर तटस्थ जब जीवन में एकांत योग अपनाता हूँ |
तब जीवन के कुछ सार तत्व अंतर्पट पर सुलझाता हूँ ||
जीवन मानव तन पर लगता क्यों अवरूढ है |
जीवन मुझको लगता जैसे सचमुच मूक है ||
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