मै तेरे मानस क्षितिज पर, प्रेम की उदभावना हूँ |
तुम मेरे गीतों के संगत,वाद्य की स्वर साधना हो ||
उपवनों में खिल रहे फूलों की, मादक सुरभि हो तुम |
अनगिनत भंवरों से झंकृत, अधर की भी तृप्ति हो तुम ||
ग्रीष्म में व्याकुल पथिक की,सघन छाया श्रोत हो तुम |
शिशिर में रवि की किरण से,प्राप्त प्रचुर प्रमोद हो तुम ||
कौन जाने तुम कहीं अब, मेरी भी न आराधना हो |
तुम मेरे गीतों के संगत, वाद्य की स्वर साधना हो ||
तिमिर में भी जुगुनुओं की,तुम अलौकिक चमक हो |
इन बादलों के बीच सचमुच,तुम तड़ित की दमक हो||
उस चन्द्रमंडल में चतुर्दिक,घिर रही मानों रजत हो |
भुला दे जो स्मिता को भी,तुम सुरा की वह छलक हो ||
तुम मेरे जीवन में लगती, श्रेय की शुभकामना हो |
तुम मेरे गीतों के संगत, वाद्य की स्वर- साधना हो ||
प्रस्फुटित कलियों में छायी,खिलखिलाती चेतना तुम |
उन पर्वतों से गिर रहे झरनों में, झंकृत सम्वेदना तुम ||
हार खाकर दिग्भ्रमित मानव, की अंतिम अर्चना तुम |
हर एक जगह हर वस्तु में,विस्तार की भी प्रेरणा तुम ||
आक्रांत जीवन में कदाचित,लग रही सान्त्वना हो |
तुम मेरे गीतों के संगत, वाद्य की स्वर-साधना हो ||
देखता प्रात: तुम्हे जब,प्रकृति के प्रत्येक कण पर |
झलकती हो मोतियों सी,अनिल की अभ्यर्थना पर||
रवि- रश्मियों के साथ मैं, तेरे पास आता दौडकर |
तुम समा जाती हो तत्क्षण,मेरी ही प्रतिवेदना पर ||
तुम अखिल ब्रह्मांड में अब,असीमित ज्योत्सना हो |
तुम मेरे गीतों के संगत, वाद्य की स्वर-साधना हो ||
देखकर मुस्कान मधुरिम, पुष्प की उस पंखुड़ी पर |
सोचता हूँ तैरती कोई, प्रीति की शबनम विहंसकर ||
प्रेरणा बनकर भी खड़ी हो, मार्ग में ऐसे सिमटकर |
आभास देकर छिप रही हो,तू ना जाने कँहा जाकर ||
अब मानता हूँ मात्र तुमको, प्रेम की अभ्यर्थना हो ||
तुम मेरे गीतों के संगत,वाद्य की स्वर-साधना हो ||
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें