दिवसांत में दिनकर पथिक, जब पश्चिमोन्मुख हुआ |
तब निज प्रिया-संयोग की,आशा से मन मोदित हुआ ||
चारु चंचल चक्षु में जब, नव उल्लास की लहरें उठी |
तब प्रेम की उदभावाना से, ह्रदय- कलिका खिल उठी ||
उद्यान- उन्मुख दिख रहा, समुदाय शिशु का ग्राम से |
अब गगनोन्मुख हो चली, एक धूम्रावली हर धाम से ||
कल्लोल क्रीडा कर चले,फिर बालचर निज धाम को |
संध्या चली सूरज के स्वागत,हेतु रति ज्यों काम को ||
धरणी प्रफुल्लित हो झूमती, उस दृश्य के सौंदर्य से |
दिख रही मुखरित धरा भी,नभचरों के मुक्त स्वर से ||
प्रकृति का आँचल उड़ा तब, मस्त वायु-प्रवाह से |
निज छटा दिखला रही वह,जो क्षुब्ध थी रविताप से ||
चल पड़ी रवि- कामिनी, ज्यों माधुर्य ले मुस्कान का |
गा रही वह गीत स्वागत, अनुभाव ले सम्मान का ||
अति प्रफुल्लित हो निशा, श्रम दूर कर उन्माद का |
दीप तारों के जलाकर,स्वागत किया निज कान्त का ||
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