मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

मुहब्बत

मुहब्बत को इतना, मुहब्बत करो तो ,
नफरत को नफरत, करनी  ही पड़ेगी। 
सफर जिन्दगी का, सुहाना बनाकर ,
नफरत को फिर से ,मुहब्बत मिलेगी। 
मुहब्बत की लय में इक, गहराईयां हैं ,
और नफरत में केवल, तनहाईयाँ हैं। 
प्रेम के भाव में इस, कदर डूब जाएँ ,
हो जाये रोशन खुद,खुदा की खुदाई। 
आओ मुहब्बत को, गले से लगाकर,
मुहब्बत से नफरत, की कर दें जुदाई।  

रविवार, 5 फ़रवरी 2017

अनुकृति

 प्रकृति की अप्रतिम छवि  ,
 देखता जब मानस मराल। 
 रूप गुण के सन्तुलन को ,
 निरख  मन होता  निहाल। 
                                                        चित्रकर्मी तो अनुकृति से ,
                                                        बस यही करता  सवाल। 
                                                        शाश्वत तुम्हारा यह रूप है ,
                                                         या तूलिका का है कमाल। 
चिर प्रतीक्षित स्वप्न अब ,
साकार सा होने लगा है। 
अज्ञात रचना का विषय 
स्पष्ट अब होने लगा है। 
                                                                   अनगिनत रंग तूलिका से ,
                                                                   चित्र तक आये अभी तक। 
                                                                   पर पूर्णता आयी न उनमें ,
                                                                    व्यर्थ हुए अंदाज वे सब। 
कौन कब  आये  इधर  ,
बैरी बनी है आज निद्रा। 
दौड़ते कितने भ्र्मर अब,
देखकर आहवान मुद्रा।

समय

समय का अविरल प्रवाह 
पर्वतों,झरनों व नदियों की ,
कभी भी परवाह नहीं करता। 
बल्कि अपने प्रभावी हथौड़े से 
इन्हें अनवरत तरासता रहता है। 
यहां तक कि 
प्रबुद्ध मानव भी ,
इस अपरिमेय प्रतिमान को,
 बदल नहीं सका। 
रात के बाद दिन,
दिन के बाद रात।
प्रकृति का यह शाश्वत नियम 
जन्म और मृत्यु की तरह,
अनवरत क्रियाशील है। 
घडी के काँटों ने 
सिर्फ इसे माप पाया है 
और ज्ञान की परिधि में,
इसे ले आया है। 
समय अनवरत गतिशील है।
तभी तो हर वस्तु में  -
गति का साहचर्य प्रगति को-
सार्थक बना रहा है। 
साथ ही समय को,
मूल्यवान बता रहा है।


जीवनगति

जीवन
अंतर्मन का
बाह्य सम्बन्धों  से ,
निरन्तर समायोजन
जबकि चरित्र
कर्मों के प्रतिबिम्ब हैं।
अंतर्चेतना और बाह्य जगत
का यही संघर्ष
जीवन को गति
प्रदान करता है
और इसी परिधि में
अंतर्चेतना
केंद्रीय सत्ता से संचालित होकर
जगत का निर्माण करती है।
मानव तो
साक्षी और भोक्ता
दोनों रूपों में
स्वयं को मूलसत्ता में
विलय का
प्रयास करता रहता है।
यही जीवन गति है।