मंगलवार, 24 जुलाई 2018

अहं ब्रह्मास्मि

 यह दृश्य जगत भी--- 
ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है।
 ब्रह्मस्फुर्त,ब्रह्मस्फुरणा तथा 
ब्रहमेच्छा से आत्मसंकल्प द्वारा 
"एकोहम बहुस्यामि "
की चरम परिणति है। 
कण कण में विद्यमान, 
ब्रह्मसत्ता की अभिव्यक्ति है।
जैसे सूर्य की किरणें ,
सूर्य से भिन्न नहीं होती हैं ;
वैसे ही आत्मा भी परमात्मा से- 
भिन्न कहाँ रह पाती है। 
जब आत्मा ब्रह्मज्योति से- 
प्रकाशित हो जाती है :
तब अज्ञानजनित भ्रम, 
स्वयमेव तिरोहित हो जाता है।
आत्मानुभूति की अवस्था में -
आत्मा भी ब्रह्मवत -
विस्तार पा जाती है। 
सागर से मिलकर नदी का -
अस्तित्व कहाँ रह पाता है ?
इसी प्रकार जीवात्मा भी 
ब्रह्मलीन होकर --
ब्रह्ममय हो जाती है। 
तभी तो उद्घोष होता है ---- 
अहं ब्रह्मास्मि,अहं ब्रह्मास्मि,अहं ब्रह्मास्मि।