यह दृश्य जगत भी---
ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है।
ब्रह्मस्फुर्त,ब्रह्मस्फुरणा तथा
ब्रहमेच्छा से आत्मसंकल्प द्वारा
"एकोहम बहुस्यामि "
की चरम परिणति है।
कण कण में विद्यमान,
ब्रह्मसत्ता की अभिव्यक्ति है।
जैसे सूर्य की किरणें ,
सूर्य से भिन्न नहीं होती हैं ;
वैसे ही आत्मा भी परमात्मा से-
भिन्न कहाँ रह पाती है।
जब आत्मा ब्रह्मज्योति से-
प्रकाशित हो जाती है :
तब अज्ञानजनित भ्रम,
स्वयमेव तिरोहित हो जाता है।
आत्मानुभूति की अवस्था में -
आत्मा भी ब्रह्मवत -
विस्तार पा जाती है।
सागर से मिलकर नदी का -
अस्तित्व कहाँ रह पाता है ?
इसी प्रकार जीवात्मा भी
ब्रह्मलीन होकर --
ब्रह्ममय हो जाती है।
तभी तो उद्घोष होता है ----
अहं ब्रह्मास्मि,अहं ब्रह्मास्मि,अहं ब्रह्मास्मि।
ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है।
ब्रह्मस्फुर्त,ब्रह्मस्फुरणा तथा
ब्रहमेच्छा से आत्मसंकल्प द्वारा
"एकोहम बहुस्यामि "
की चरम परिणति है।
कण कण में विद्यमान,
ब्रह्मसत्ता की अभिव्यक्ति है।
जैसे सूर्य की किरणें ,
सूर्य से भिन्न नहीं होती हैं ;
वैसे ही आत्मा भी परमात्मा से-
भिन्न कहाँ रह पाती है।
जब आत्मा ब्रह्मज्योति से-
प्रकाशित हो जाती है :
तब अज्ञानजनित भ्रम,
स्वयमेव तिरोहित हो जाता है।
आत्मानुभूति की अवस्था में -
आत्मा भी ब्रह्मवत -
विस्तार पा जाती है।
सागर से मिलकर नदी का -
अस्तित्व कहाँ रह पाता है ?
इसी प्रकार जीवात्मा भी
ब्रह्मलीन होकर --
ब्रह्ममय हो जाती है।
तभी तो उद्घोष होता है ----
अहं ब्रह्मास्मि,अहं ब्रह्मास्मि,अहं ब्रह्मास्मि।