दीवाने तो हर जुल्म को, हंस हंस करके सहते हैं |
जुबाँ खुल भी गयी तो, शुक्रिया ही सिर्फ कहते हैं ||
प्रिय की आरजू तो दिल, के हमेशा पास आती है |
तभी तो नाम के अल्फाज, उनके लब पर लाती हैं ||
गमों के साये में रहकर, गुजारें जिन्दगी कब तक |
दीवाने यादों के दरम्यान, जब तनहा दर्द सहते हैं ||
मुहब्बत की शमां तो रोशन, हुई लेकिन लगे ऐसा |
जैसे उन फासलों की आग में, वे हर वक्त दहते हैं ||
जमाने की बहुत सी उलझनों, में बीत जाते दिन |
पर अँधेरे की नदी में रात को, तिरते और बहते हैं ||
झुकाकर शीश सहना जुल्म को, बेकार मत समझो |
इन्ही खामोशियों में ही तो, गजब के तूफ़ान रहते हैं ||
सुनो" जिज्ञासु " अब इन, पत्थरों में दिल नहीं खोजो |
ये पत्थर तो सिर्फ पत्थर हैं, ऐसा कुछ लोग कहते हैं ||
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