बहता शिशिर समीर,कांप रहे कृषक वीर,
हाथों में फावड़ों की, छोर दनदना रही |
खेतों में झूम रहे, बैलों के श्रम- प्रसून,
घर घर में नारियां हैं, लोरियां सुना रहीं ||
नंगे तन बच्चों के, अंग- अंग टूट रहे,
आँखों में विलस रहे,सपने भविष्य के |
रो रोकर खाते हैं,पीते हैं सुबक-सुबक,
झलमल झलक रहे, आंसू अतीत के ||
गांधी की तीन मूर्ति, उतर पड़ी गाँवों में ,
मौन बनी देख रही, अपनी ही लाश को |
चीख मारते हैं श्वान, देख देख रोटियां,
झपट झपट भेडिये, उधेड़ रहे मांस को ||
विकास योजनाये, भाग रही गाँवों को,
दौड़ रहा ग्रामीण, पूंछ पकड़ शासन की |
आंकड़े बना रहे ,मंत्रीगण दिल्ली में बैठ,
भरे हैं गोदाम वहां, रिक्त यहाँ राशन की ||
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें