साहित्य में युग - साधना ,
कवि-दृष्टि पा कविता बनी |
रस , छंद , भाषा- भाव से,
निर्मित सरस सरिता बनी ||
साहित्य के भू -पृष्ठ पर,
जान्हवी की सरस धारा |
काव्य- सुधि बहने लगी ,
पा भाव का उन्मेष सारा |
सूर, कविरादास, तुलसी,
श्रोत - उदगम यदि रहे |
शेष कवि मध्यस्थली के,
प्रवाह बनकर निर्झर बहे ||
काव्य की मधुर सरिता ,
अनगिनत पाषाण देखी |
धर्म- दर्शन, संस्कृति के,
अनगिनत आयाम देखी ||
सगुण- निर्गुण की द्विधारा ,
अवतरित क्रमशः हुई जब |
आदर्शवत वह परम श्रेयस,
मनुजता को प्रिय हुई तब ||
श्रीराम व श्रीकृष्ण की ,
गाथा से जो अनुरक्त थी |
काव्य में वह भक्ति- धारा,
स्वर्णयुग की सृष्टि की ||
रीति के मखमली भू -पर,
तब श्रृंगार सरिता ने किया |
तब श्रृंगार सरिता ने किया |
राजसी वैभव में छिपकर,
मार्ग कुछ विकृत किया ||
भूष, बिहारी आदि कवि,
से वाटिका ऐसी सजी थी |
मानो सुरभि-सौन्दर्य ही,
उस काव्य धारा में बही थी ||
उबकर सौन्दर्यश्री से जब ,
कविता मरुस्थल को बढ़ी |
प्रकृति- वर्णन की लहर,
लेकर पुनः गिरि पर चढ़ी ||
कुछ बिम्ब छायावाद के भी ,
ऊपर उभर कर आ गए थे |
मानवी अनुदान से वे सब ,
चतुर्दिशि में फिर छा गए थे ||
प्रकृति वर्णन की विधा भी,
मानवाकृति में ढली जब |
लोल लहरों के संग में वह,
सृष्टि-क्रम में आ गया तब ||
संभावना के शिखर पर चढ़,
हंस रही थी कोई कव्यबाला |
कृतकृत्य होकर आगे बढे,
पन्त, जयशंकर, निराला ||
क्षेत्र विस्तृत जब मिला है ,
तब गति स्वंय स्थिर हुई |
रेत की शैय्या निरख कर ,
कवि- लेखनी मोदित हुई ||
आधुनिक सन्दर्भ तल पर,
आ गिरी जब उन्मुक्त धारा |
स्पर्श पाकर धरती कणों ने,
तब अंकुरों को है पुकारा ||
रस, छंद, भाषा-भाव में भी ,
अतिशय प्रदूषण सा हुआ |
कविता अकविता बन गई,
ऐसा उदधि-मंथन है हुआ||
विज्ञानं के उत्कर्ष से जब,
केन्द्रीयकरण होने लगा |
नयी कविता का प्रदूषण,
नहरों में गिर बहने लगा ||
काव्य सरिता का मृदुल जल,
जंगलो तक छा गया जब |
ऊसर असिंचित क्षेत्र पर,
सर्वत्र जल ही जल हुआ तब ||
मानसिक उर्वरक पाकर ,
कविता फसल सी उग गई |
फूल, फल, कोपल -सदृश ,
उपजी कला नित नित नई ||
मजदूर हंसिये फावड़े ही,
अब काव्य के शीर्षक हुए|
यंहा तक क़ि रोटियों ने भी ,
काव्यतल को आकर छुए ||
सामान्य जनजीवन में अब ,
कविता उमड़कर बह रही है|
" जिज्ञाशु" की "अज्ञेय" से यह,
" जिज्ञाशु" की "अज्ञेय" से यह,
अब काव्य-चर्चा चल रही है ||
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