रविवार, 31 जुलाई 2011

ज्योति-पर्व

नव जागरण की सुबह तक,दीप यह जलता रहेगा |
सम्पूर्ण धरती का अँधेरा,अब तो निश्चित मिटेगा ||

                         एक  दीपक से हजारों, दीप जब जल जायेंगे,
                         आसमाँ के तारे भी, छवि  देखकर शरमायेंगे | 
                         देव, मुनि, गन्धर्व सब , इस  धरा पर नाचेंगे,
                         अमर ज्योति को सभी,अनुदान देकर जायेंगे ||

यह दीप ही इस पर्व पर, देवत्व का स्वागत करेगा |
नव जागरण की सुबह तक,दीप यह जलता रहेगा ||

                          युव-जागरण का इसे, सुअवसर अब मान लो,
                          सदैव आगे बढना है अब, मन  में यह ठान लो |
                          अपरिमित सामर्थ्य को, अब तुम पहचान लो,
                          तुम अमर ज्योति से,दिव्यता के अनुदान लो ||

युगनिर्माण के आहवान में,फिर यही सम्बल बनेगा |
नव जागरण की सुबह तक ,दीप यह जलता रहेगा ||

                          एकता की विश्व  में, गुन्जित रहे यह भावना,
                          कितने ही संघर्षों से,क्यों न पड़े अब सामना |  
                          अमर ज्योति से करो,नव सृजन की साधना,
                          यह पर्व मंगलमय रहे,मेरी यही शुभकामना ||

नव चेतना की जागृति को,अब यही सार्थक करेगा |
नव जागरण की सुबह तक,दीप यह जलता रहेगा ||

सेवा -मुक्ति

अविराम जीवन का,
यह विराम स्थल  |
जहां पर आपकी -
सम्पूर्ण----------
शासकीय सेवाओं का -
मूल्यांकन करते हुए ,
अश्रुपूरित नयनों से
ससम्मान विदा कर रहें हैं  |
एक स्मृति स्थल कहलायेगा |
आपका अकिंचन स्नेह,
सदैव याद दिलाएगा |
आपके अपूर्व-
कौशल और साहस का  |
दीर्घायु एवं स्वस्थ हों,
इन्हीं शुभकामनाओं द्वारा-
सहर्ष अभिनन्दन,सादर नमन |

सार्थकता

सुख दुःख की अनुभूति,
विपरीत हो सकती है | 
दिन रात का अस्तित्व,
पृथक हो सकता  है |
हम और तुम हमेशा, 
जुदा रह सकते हैं | 
किन्तु यह सभी, 
एक दूसरे के पूरक हैं |
इनकी सार्थकता,
एक दूसरे को-----
साहचर्य के क्षितिज पर,
प्रतिबिम्बित तो करेगी |
जैसे दीपक अंधकार को |
जब तमस निरापद नहीं,
तो स्वीकृती अवांछनीय क्यों ?


अवलम्ब

धन वैभव तो मिल जाता,मिलता नहीं है यार क्यों ?
जीवन की दुर्गम यात्रा में, मिला नहीं पतवार क्यों ?

                    मैं एक संजोया था सपना ,
                    दुनिया  अलग  बनाऊंगा | 
                    तन  मन सब अर्पित कर, 
                    उसमें कुछ फूल उगाऊँगा||

पर बसन्त में आया यह, जीवन का पतझाड़ क्यों ?
जीवन की दुर्गम यात्रा में,मिला नहीं पतवार क्यों ?

                   झुरमुट में  भी  झांक- झांक,
                   उपवन का उल्लास मनाया | 
                   मगर कहीं  मिल सका नहीं,
                   जिसने मन में प्रीति जगाया || 

हार  गया पथिक भूलकर,अपना ही मझधार क्यों  ?
जीवन की दुर्गम यात्रा में,मिला नहीं पतवार क्यों ?

                    साधन व उपकरण वही,
                    मित्र वही संसार वही है|  
                   जीवन की इस यात्रा  में,
                   अनुभव व अंदाज वही है || 

फिर भी जब आगे बढ़ता,मिलता मुझे कगार क्यों ?
जीवन की दुर्गम यात्रा में,मिला नहीं पतवार क्यों ?

                    जहाँ कहीं  मैं  गीत  सुनाता,
                    चुप रहते सुन सजल कहानी | 
                    मुस्कानों  से  भाव  जगाकर,
                    जग करता कितनी मनमानी |

जिधर चला मैं भाव जगाने, वहीं नहीं दीदार क्यों ?
जीवन की दुर्गम यात्रा में,मिला नहीं पतवार क्यों ?

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

पुनर्स्मृति

स्मृतियों के पार क्षितिज पर,
झलक रहीं हैं अमृतमय  बूँदें |
मधुवन सा यह जीवन लगता,
मन कहता अब नभ को छूलें ||

                                     मानवता का परिचय पाया, 
                                     जिन आँखों की गहरायी में|
                                    आज मुझे अभिशप्त लग रहे,
                                     वे ही क्षण निज परछायी में||

 व्यक्त करूं कैसे  अनुभव को,
 अपने शब्दों के  माध्यम से |
 सार्थक जीवन की तलाश मैं,
 करता हूँ अब कोरे कागज में||

                                       इसी प्रतीक्षा में निशिदिन मैं,
                                       जीवन के पृष्ठ उलटता रहता |
                                       जाने अनजाने मिल जाये ही,
                                       इसी आस में लिखता रहता ||

 कवि की भावना  का परिचय,
 कवितायें  तो देती अवश्य हैं|
 किन्तु नहीं वे बतला पाती हैं,
  कितना गहरा जीवन तल है ||



रविवार, 24 जुलाई 2011

श्रद्धाँजली [स्व०पूज्य पिता के प्रति ]

तोड़ तम संसार का, अनुचर बने हो शान्ति के |
छोड़कर  संसार  यह,  वासी  बने  एकान्त  के ||
रूप छवि और तेज को,लेकर कहाँ तुम जा रहे |     
पुत्र,  पत्नी , मित्र,  भगिनी, याद में सब रो रहे|| 

                     शायद करुण- क्रन्दन तुम्हें, संगीत सा  है लग रहा |
                     जिस भाव में उन्मत्त होकर,सिर तुम्हारा हिल रहा  ||
                      निष्प्राण शव के संग में,  दुःख हो रहा मन को मेरे  |
                      यदि मैं देखता जाते तुम्हें,तो साथ चल पड़ता तेरे ||

इसलिए  यह प्रार्थना, सुनकर मुझे कर दो क्षमा |
हाय किससे किस तरह, अब कर रहा हूँ प्रार्थना ||
आत्म ज्ञान होता विफल, जब दुःख के संत्रास से|
मैं  समझता  सुन रहे तुम, चैतन्यहीन प्रवाह से||

                     अब शून्य है रोना मेरा, जब शून्य है सुनना तेरा |
                     शून्यवत संसार में क्या, शून्य अब जीवन मेरा ||
                     जिन्दगी का मूल्य क्या,रोना विलखना मात्र ही|
                     लो लुट गयी दुनिया हमारी,अब तुम्हारे साथ ही ||  


प्रतीक्षा

उतरना तुम कभी पलकों पर, तज कर सेज ख़्वाबों की|
                मुझे आवाज दे देना---- मुझे आवाज दे देना ||

तुम्हारे अंग अंग की खुशबू, हमारी ही विरासत है |
अदाएं इश्क की भी सारी,लग रहीं जैसे इबादत हैं||
तुम्हारी ही प्रतीक्षा में, अब, बहारों की इनायत  है |
तुम्हारे मुस्कराहट पर,फिसलने की जो आदत है||
   
गुजरना जब कभी उन तक,अहमियत ले बहारों की |
              मुझे आवाज दे देना---- मुझे आवाज दे देना ||

निगाहें  इस  तरह  मेरी, एकटक हैं  देखती उनको |
कोई  शबनम  ढुलककर,अभी ही जैसे हो फिसली ||
भ्रमर  मदहोश हो करके, भुला  बैठा है अपने  को |
पुष्प रज त्याग बैठी है, ना जाने कब से ये तितली||

तुम्हारे पायलों की ध्वनि, तोड़े नींद जब उनकी | 
       मुझे आवाज दे देना---- मुझे आवाज दे देना ||

मार्ग बिलकुल नया पाया, अपनी जिन्दगी का यह|
गुजर काँटों से फूलों तक, सफर भी तो नया होगा ||
कभी ओले पड़ेंगे और  फिर, कभी अंगार बरसेंगे |
मानता हूँ यह सब तुम, अभी तक ना सहा होगा || 

जरूरत जब कभी समझें, किन्हीं अनजान बाँहों की |
         मुझे आवाज दे देना---- मुझे आवाज दे देना ||




सीमित परिवार

जिस घर में खिले दो फूल वहाँ,
सुख, चैन व  समृद्धि खुद आये |
हाथों में सजाकर  विजय दीप,
धरती भी खुश हो करके गाये ||

                               महक उठेगा घर व आँगन जब,
                               कोई  उत्सव तब श्रृंगार करेगा |
                               सुख व दुःख की क्रम-संगति में,
                               आशा के कुछ अनुभाव भरेगा ||

उदभव सचमुच अब पर्याप्त  नहीं ,  
परिपालन भी करके दिखलाओ| 
सीमित साधन से यदि चाहो तो,
तुम स्वर्ग धरा पर लेकर आओ ||

                               इतना ही यह कर्तव्य तुम्हारा,
                               सुखमय जीवन को  पथ  देगा |
                               शिक्षा का यह वरदान तभी तो,
                               पग पग पर तुम्हें अवसर देगा ||

दो सन्तानों से यह जीवन भी ,
सहज, सरल व  सुखमय होगा |
पुत्र व पुत्री का अन्तर तुमको ,
अब मिटाना ही हितकर होगा |

भावुकता

   यह मेरी भावुकता ही होगी
     लिखने का मन कहता जो ||
      कुछ भी नहीं भुला  पाता मैं   , 
       शेष है लिखने की भ्रमता जो ||१||

                      'जिज्ञासु' बना मैं देख रहा हूँ, 
                        आयामरहित यह नील गगन |
                            कुछ भी  नहीं दिखाई पड़ता,
                              फिर भी क्यों  हो रहा मगन ||२||

रिश्तों को गले लगा करके मैं,
  हार गया अब शेष नहीं कुछ |
   जीत  समझ  बैठा  उसको ही,
     यह भावुकता का कडवा सच||३||
 
                        बना नहीं है प्रारूप अभी तक,
                         भाव- शून्य  उन  सपनों  का |
                          कितने प्रयोग कर देख लिया,
                           यह मृगमरीचिका थी यत्नों का ||४|| 

 अब सर्वस्व लुटाने के  यत्नों को,
  केन्द्रित करना जब सीख लिया |
   भावुकता के उस  नग्न रूप को,
   अब कोरे कागज पर खींच दिया ||५|| 

                           सौम्य,सरस,अनुराग विखंडित,
                            जीवन भी क्या  कोई  जीवन है|
                             सच कलुषित अनुभावों में यह ,
                              पशुवत जीवन का अनुशीलन है||६|| 

नव वर्ष

मंगलमय  नूतन  वर्ष  तुम्हे,
 मंगलमय जीवन का पथ हो |
   निर्विघ्न रहे वह मार्ग  सदा ,
    जिस पर तेरे उन्नत पग हों ||१|| 

              पावस ऋतु सी मनोकामना, 
               सौरभ बनकर जब महक उठे | 
                 तब जीवन का नव  विकास, 
                   पाकर बसंत मन चहक उठे ||२||

नये वर्ष के नूतन प्रभात में, 
चमके आशा की नई किरण |
 स्नेह- सुधा से  अभिसिंचित ,
  लहराए जीवन का उपवन ||३|| 

                नव प्रभात की नव किरणें,
                 उन्नति के लायें नव सन्देश |
                  सुख व संवृद्धि के आगमन से,
                   अब चहक उठे सारा परिवेश||४||

 सर्वोन्नति का यह दिव्य भाव,
  जब तन मन का उल्लास बने|  
   मेरे गीतों का यह अभिनन्दन,
    अब जीवन का ऋतुराज  बने ||५||

आस्था के आयाम

हार कर भी जीत  का, उत्सव मनाते जाइये ,
जिन्दगी में हर घड़ी, खुशियाँ मनाते जाइये |

                 आस्था के तो बहुत से, आयाम अब भी रिक्त हैं |
                 मनुज में ही दिव्यता की, संभाव्यता सम्पृक्त हैं|| 
                 तुम साधना के मार्ग पर, हार समझो जब कभी|
                 सोचना तुम साध्य तक, का यत्न है बाकी अभी||
  
हर कदम पर विजय का,  गीत गाते जाइये,
जिन्दगी में हर घड़ी, खुशियाँ मनाते जाइये | 

                तुम ना बनाओ जिन्दगी को, ईंट की दीवार सी |
                नित बदलते रूप इसके, शिशिर चन्द्राकार सी||
                मार्ग में संघर्ष जितने भी हों, वे नजर आते रहें |
               अपने ही सामर्थ्य में वे, परिपूर्णता भी लाते रहें||

 हार तो एक विश्राम है, थोडा वहां रुक जाइए,
  जिन्दगी में हर घड़ी, खुशियाँ मनाते जाइये |

              कल्पनाओं का  घरौंदा, रेत पर जब  बनता है |
              खेलकर कुछ क्षण उसे,खोना अच्छा लगता है||
              वासनाओं के दमन से, दिव्यता खोजो उसी में|
              प्रेम की उद्भावना को, भक्तिमय देखो उन्हीं  में || 

  तुम कल्पना में कर्म का, उद्भव दिखाते जाइए, 
  जिन्दगी में हर घड़ी,  खुशियाँ  मनाते  जाइये |  

शनिवार, 23 जुलाई 2011

तलाश

तुम मार सकते हो उन्हें,
जो सचमुच जीवित हैं  |
और मुझे ----
जो दिन में कई बार 
मरता और जीता हूँ ;
नहीं मार सकते | 
अच्छा यह होगा क़ि 
तुम तलाश करो.....
किसी जीवित व्यक्ति की |
अपनी ही तरह.....
जो अपनी जिजीविषा का--
परिचय तुम्हें दे सके|
मैं तो प्राय:....
मिलता ही रहता हूँ|
हर एक मोड़ पर,
जिधर से आप गुजरते हैं |

वादों के साथ

दिल में बसी थी प्रिय मूरत, आँखों में उभर जैसे आयी |
जीवन भर साथ निभाने के, वादों पर बदली सी  छायी ||

                    ख़्वाबों में जला करता था दिल, ख़्वाबों में वह बुझता था |
                     यादों के सहारे ही रह रहकर,सागर में ज्वार उमड़ता था ||
                      होश नहीं मुझको  सचमुच, एक दिन ये बहा ले जायेगा|
                      आखिर यह शरारत कर मुझसे,नादान यहाँ क्या पायेगा ||

 मधुमास छिपाए अंतस में, आपत्ति घटाएं घिर आयी |
जीवन भर साथ निभाने के, वादों पर बदली सी छायी ||

                        मैं सहमे- सहमें इन कदमों से, उपवन तक तो आ पाया |
                        पर दिखी नहीं कोई  कलिका, जिस पर उनकी हो साया ||
                        जब पीड़ा की अनुभूति जगी, तो फूलों से  यह फरमाया ||
                        दिखने में तो सुन्दर लगते हो, क्या तुमने भी दुःख पाया |

अधखुली पखुडी की विपदा से,आंख वहीँ पर भर आयी |
जीवन भर साथ निभाने के, वादों पर बदली सी  छायी ||

                        तनमन का उन्माद कभी, नयनों  में उतर आता है जब |
                        आंसू बनकर बहने लगता ,और प्रज्ञा होती झंकृत तब ||
                        जीवन पथ पर यह आंसू , एक स्मृति चिह्न बनाते जब |
                        भूली बिसरी उन यादों से ही, अभिनव चित्र बनाते तब ||

बाँहों में उठी थी जो सिरहन, वह तृप्ति कभी न ले पायी |
जीवन भर साथ निभाने के, वादों पर बदली सी  छायी ||













मंजिल

मिल गयी मुझको सारे जहाँ की ख़ुशी ,
हमसफर  बन चले  जब तेरे  साथ  हैं| 

                                   चिह्न कदमों के तेरे,अब है मंजिल मेरी,
                                   कोई पतझड़ इसे, अब न उडा पायेगा|
                                   ख्वाब सपने बने, सपने को क्या कहू,
                                    राजे दिल ही हकीकत, सुना जायेगा ||

  धरती आकाश सब, हमसफर बन गये,
  आज मुझको मिला,अपना सौभाग्य है|
  मिल गयी मुझको सारे जहाँ की ख़ुशी ,
   हमसफर  बन चले , जब तेरे  साथ हैं||

                                   "सर्व शिक्षा से पायी हूँ, जो वरदान ऐसा,
                                     देखते  देखते  मैं ,क्या से क्या बन गयी |
                                     स्वास्थ्य शिक्षा से  ,आत्म शक्ति जगायी ,
                                     देखिये आज  पैरों पर, मैं खड़ी हो गयी  ||

अबला से सबला तक का मेरा  सफर,
अब दे गया जैसे जीवन को वरदान है |
मिल गयी मुझको सारे जहाँ की ख़ुशी ,
हमसफर  बन  चले  जब तेरे  साथ  हैं||

                                     बाल- शिक्षा व महिला के कल्याण की,
                                     योजनायें तो अनेकों देश में चल रही हैं|
                                     स्वच्छता और कुपोषण के सदज्ञान से,
                                     अब देश में दूध  की,नदियाँ बह रहीं हैं ||

ग्राम्य पंचायतों की, सुखद छाँव लेकर,
पञ्च परमेश्वर भी तो, अब मेरे साथ हैं |
मिल गयी मुझको सारे,जहाँ की ख़ुशी ,
हमसफर  बन चले,  जब तेरे  साथ  हैं || 
                              

बुधवार, 20 जुलाई 2011

कौमी एकता

   


   गुजरेगा ऐसा वक्त  भी, चमने बहार में |
   तन पे हजार जख्म, अपनों के वार से ||


               अपने ही पांव पर किये,जो वार हम कभी |
               दर्दे जखम सुना रहे ,अब दास्ताने बेबशी ||


   एक ओर जल चुकी है, पंजाब की मशाल |
   कश्मीर कर रहा है, अपना अलग सवाल ||


             हाथों को तन से काटकर, आजाद कर रहें हैं |
             हम अपने ही बाजुओं को,नाकाम कर रहें हैं|| 


   अब  क्रांति जरूरी है, सुख और चैन के लिए |
   क्यों वतन की आन पर, मुख मोड कर जियें ||


             दुश्मन तमाम और भी हैं, जो बेताब दिख रहे  |
             हम पहचान लें तभी उन्हें, दुश्मन का नाम दें| ||


    उल्फत के इस दौर में, बस सदभाव दिखाएँ|
    गाँधी, सुभाष,  नेहरु के,अरमां  को जिलायें ||

रविवार, 17 जुलाई 2011

हम और तुम

 अव्यक्त भावना का उदभव,
   अंतर्पट पर जब जब देखा |
    जीवन के उन लघु वृत्तों पर,
     खिच गयी प्रणय की  रेखा ||

 नैसर्गिक अनुकृति से वह,
  तृप्ति  प्रेरणा तब लेती है|
   हर पल प्रिय की पीड़ा से,
   विरही को जीवन देती है||

 बन जहाज का पंछी मैं,
  जब बार बार मडराता हूँ|
   प्रिय की बाँहों में आकर, 
    गीत मिलन के गाता हूँ ||

 शायद इस अनुमोदन पर,
  तुम ध्यान अभी दे पाई हो |
   मेरी अब पीड़ा सहलाने को,
    लगता रूपसि तू मुस्काई हो||

 बस  इतना ही पर्याप्त मुझे,
  जीवन पथ पर चलने को |
   परछाई बनकर चलना तुम,
    कर्म- भूमि में भी लड़ने को ||

 हार नहीं खा सकता किंचित,
  पग से पग अगर मिले तेरा|
   पवन वेग से प्रेरित घन सा,
    दूर कहीं भी ले लेंगे बसेरा || 
      

गजलें

उठाना नहीं था अगर मुख से पर्दा|
 मुझे महफिलों में बुलाया न होता ||

 चुराना था यदि आँख मुझसे तुम्हें |
 आँख में आँख ही मिलाया न होता ||

 छीननी थी अगर मुस्कराहट मेरी |
 पहले ही हंसना सिखाया न होता ||

 बुझाना नहीं था अगर आपको तो |
 आग दिल में मेरे लगाया न होता ||

 गुजर जाते दिन आपके भी बिना |
 प्यार की राह में बुलाया न होता ||

 इजाजत न होती तो मैं भूलकर भी |
 मधुर गीत ओठों पर लाया न होता ||

 शिकायत न होती कोई इस कदर से|
 आप हंसकर अगर बुलाया न होता ||

 चलो यह भी अनुभव रहा इक नया |
 सुना था कि अपना पराया न होता ||

 मगर आज समझा कि दोषी हूँ मैं भी|
 हाथ अपना अगर खुद बढाया न होता ||

 आज इतना न कहता मजबूर होकर |
 मुझे नजरों से बस गिराया न होता||
                         

तुम्हारे लिएः

      दिल से उठा तूफ़ान,  अब ओंठों  पर आ  गया |
      मुददत  का भटका प्यार, की राहों मे आ गया ||

       यह प्यास मेरे मन की, तो स्वाती ही बुझाये |
       अंग अंग में उठे दर्द को, सुधि रश्मि मिटाए ||
       ख्वाबों में उभर आयी, खुशियाँ कहाँ  छिपाएँ |
       परिपाक सा ह्रदय में, बस  शोर ही  मचाये||

     चाहत की इस डगर पर, याचक बना कभी जब|
     तू बन गयी घटा और, मैं चातक  ही  रह  गया ||
     दिल  से  उठा  तूफ़ान  अब, ओंठों  पर आ गया |
    मुददत  का भटका प्यार, की  राहों  में आ गया||

          तुझे उपवनों में खोजा, और भंवरे सा गुनगुनाया|
          थक  हारकर वहीं पर, यह  ध्यान मन में आया||
          भटका हुआ  समझकर ही, फूलों  ने यह सुनाया |
          शायद  सुगन्धि  प्रेमी,  इन भंवरों ने हो चुराया||

      विश्वास की  परिधि पर, यह चोट थी  करारी|    
      फिर भी  मेरे  लिए तो, वह  फूल  बन  गया ||   
      दिल से उठा तूफ़ान अब,ओंठों  पर आ गया|
     मुददत का भटका प्यार,की राहों में आ गया||
  
           दमयंती और नल का, अभिशाप भी न था ऐसा| 
           जो दिन तुम्हारे ख्वाब में, लगता  महीनों जैसा ||
           तूफ़ान सा उठ रहा है, यह सागर में ज्वार कैसा|
           निःशब्द  होकर पुकारे, स्वाती को चातक जैसा ||

      आँखों  में  प्यास  लेकर,  जब  जब  बढा   आगे|
      इतिहास   कोई  पीछे  से, यह  आवाज  दे गया ||
      दिल  से  उठा  तूफ़ान  अब,  ओंठों  पर  आ  गया |
      मुददत का  भटका  प्यार,  की  राहों  में आ गया||
       

गुरूदेव के प्रति

  अप्रतिम महामानव हो गुरुवर , मानवता से अभिभूषित|
  सहृदय,सरल,विवेकी सदगुरु,तुम मनुज प्रेम से स्पंदित||
  स्नेह, दया की प्रतिमा हो, सच्चरित्रता से महिमा मंडित | 
  श्रद्धा के यह शब्द सुमन ही, अब करता हूँ तुझको अर्पित ||


  अथक कर्मरत,अविरत जाग्रत,बहुबिधि अथ इति-ज्ञाता|
  अगणित जन हैं तुमसे उपकृत, कर्ण-सदृश तुम हो त्राता||
  परम ज्ञानी और कर्मयोगी भी, तुम ऐसे स्वराष्ट्र निर्माता |
  यश वैभव से अभिसिंचित हो,सदा तुम्हारी जीवन गाथा ||
 
  अखंड ज्योति के संरक्षक और, विचार- क्रांति- उदगाता |
  वेदस्मृति उपनिषद आदि के, तुम हिंदी रूपान्तर दाता ||
  गायत्री के पवित्र  मन्त्राक्षर से, जनहित के, अनुसंधाता |
  ऋषिकुल परम्परा संवाहक, धर्म सनातन के तुम ज्ञाता  ||
  

शनिवार, 16 जुलाई 2011

सितम

खुदा जाने क्या  क्या  सितम अब  सहेंगे ,
इस नफरत की दुनिया में हम कैसे रहेंगे |

     जमीं  आसमां  सभी  सुर्ख लग रहा है ,
     अँधेरे में जुगनू का डर सा लग रहा है |
     बिना बादलों की यह बरसात कैसी है ,
     मुझे कोई साजिश का शक हो रहा है||

हम  अपने  ही  साये से  कब  तक  डरेंगे,
इस नफरत की दुनिया में हम कैसे रहेंगे |
            
     अभी तक जो अपने थे अब पराये  हुए,
     इस जमाने को आखिर क्या हो गया है|
    खामोश दिल की वह धड़कन कहाँ तक,   
     बयाँ  कर  सकेगी अब डर लग  रहा है||


अब अलगाव के तूफ़ान  कब  तक  बहेंगे,
इस नफरत की दुनिया में हम कैसे रहेंगे| 

    एक साथ चलना, हंसना मुनासिब नहीं है,
    सरहद  की  रक्षा  जो  करते  हैं  संग  संग |
    मंदिर या  मस्जिद  की  नफरत  बढाकर,
    तैय्यार  करते  हैं  क्यों  एक  नया  जंग||

  हम गुमराह हो कब तक लड़ लड़ मरेंगे,
 इस नफरत की दुनिया में हम कैसे रहेंगे|  

मील का पत्थर

आस्था के
अधुनातन आयामों में
बदलना होगा दृष्टिकोण
परम्परागत परिभाषाओं के
संकीर्णता से जकड़े
स्वार्थ से बजबजाते
रूदवादिता के पोखरे में
अब कषैले पानी से
एक बू आने लगी है
नए दृष्टिकोण की
मूसलाधार बरसात
कदाचित इस प्रदूषण को
बहा सकेगा
एक नयी अर्थवत्ता
जो इक्कीसवीं सदी के
मील का पत्थर बन सकेगा

शनिवार, 9 जुलाई 2011

हम सीखेंगे

                                                        
 सर्वोच्च हिमालय से सीखें ,
 निज मस्तक ऊंचा रखना |
 घन पुंजों से हमसब सीखें , 
 सदा मधुरतम रस भरना ||१|| 

                                             सुमनों से  हंसना  सीखेंगे   ,
                                              अरु  कलियों सा मुस्काना |
                                              मधुप वृन्द से हम सीखेंगे,
                                              मधुर मधुर स्वर में गाना   |२|| 

  वीर शहीदों से सीखें हम ,
  अपने  कर्तव्य  निभाना |
  दीपक  की  लौ से सीखेंगे ,
  चहुँदिशि  प्रकाश फैलाना ||३|| 

                                               झरनों से सहनशीलता सीखें ,
                                                रवि-किरणों से लें नवजीवन |
                                                चन्दा से शीतलता ले करके  ,
                                                करें सदगुणों का अनुशीलन ||४||

  स्वाभिमान प्राणों से  आगे,
   रखकर है अब आगे बढ़ना  |
  मातृभूमि का रक्षक बनकर ,
  जीवन को सार्थक है करना   ||५||

सोमवार, 4 जुलाई 2011

अनन्त -दृष्टि

  अनन्त -दृष्टि 
जब कभी एकान्त में,
अनन्त आकाश की ओर-
दृष्टि जाती है |
दिखते हैं अनगिनत तारे,
 हल्के नीले पर्दों से,
 मुस्कराते हुए और तभी,
मधुर स्वर से अनुबद्ध,
 कोई अज्ञात प्रेरणा--
दस्तक देने लगती है |
कोई गीत उभरता है|
ओंठ फडकते हैं/मन गुनगुनाता है |
ह्रदय से निकलती है| 
काव्य की एक धारा--
 जो सम्वेदनाओं के सहारे,
 अनन्त आकाश की ओर--
 जाकर लींन  हो जाती है|
 उसी अनन्त में,
 जहाँ से प्रस्फुटित हुई थी  |

प्रश्न

             प्रश्न  
क्या आप बतायेंगे ---
उन करोड़ों श्रमिकों की ,
करुण कथा को,
जिनका संघर्ष ही जीवन है |
और मृत्यु मुक्ति का द्वार|
प्रताड़ना एक परम्परा हो -
और विवशता उनकी ख़ामोशी|
पीठों से चिपके पेटों की,
 सिर्फ भूख ही समस्या हो |
किंचित विश्राम ही,
जिनका महोत्सव हो |
सम्पूर्ण धरती---
जिनका कर्मक्षेत्र हो |
ऐसी कहानी कब तक सुनोगे |
 यह दृश्य कब तक देखोगे |
कुछ तो कहो ---
 शायद आपके कथन से ,
उनके आंसू सूख जाएँ- 
और अनुत्तरित प्रश्न हल हो जाएँ|

आत्म - परिचय

        आत्म - परिचय 
 नाम ---------डॉ 0 जटा शंकर त्रिपाठी " जिज्ञासु " 
 पिता का नाम ------स्व 0  शिव शंकर त्रिपाठी
 माता का नाम ---------स्व0    राम  दुलारी
 जन्म -तिथि ------१५ जून १९५७ ई० 
जन्म -स्थान ---ग्राम- गोपलापुर पोस्ट -झीगुर जिला -प्रतापगढ़ उ० प्र० 
प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में ही सम्पन्न हुई तथा उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्व विद्यालय से प्राप्त की | सन १९८३ ई0 में दर्शन शास्त्र विभाग इलाहबाद विश्व विद्यालय से" भारतीय समकालीन दर्शन में प्रो० आर० डी ० रानाडे के योगदान"विषय पर डाक्टर आव फिलासफी की उपाधि प्राप्त की सन १९८६ ई० में उक्त शोध प्रबंध का प्रकाशन "एकेडमी आव कम्परेटिव फिलासफी एंड रिलिजन" ,बेलगाँव {कर्नाटक प्रदेश  }द्वारा किया गया  दर्शन एवं धर्म की समन्वयात्मक प्रवृत्ति के फलस्वरूप ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान, शान्ति कुञ्ज हरिद्वार से जुड़े रहे| सम्प्रति उत्तर प्रदेश सचिवालय लखनऊ में अनुभाग अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं | राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान  उ० प्र० सचिवालय के संस्थापक सदस्य एवं विभिन्न  साहित्यिक  संस्थाओं से जुड़े रहे हैं| स्वतंत्र लेखन यथा कविता ,कहानी ,व निबंधात्मक लेख में विशेष रूचि रखते हैं