बुधवार, 29 जून 2011

रोज का मुसाफिर

मैला और कुचैला, अपने लिए हाथ में थैला, मुसाफिर एक आता है |
सुबह शाम दोपहर भटकता, जैसे कभी न थकता, दुआएं दे जाता है ||

       रोज सुबह घर से निकलेगा, सडकों गलियों पर चलता है |
        उसे न मालूम मंजिल अपनी, फिर भी आगे ही  बढ़ता है ||
        रुक जाता वह वहीँ जहाँ पर, कूड़ों का जमघट दिखता है |
        खुश होता फिर उलट पुलट कर, पाता कुछ तो  हँसता है ||

 झट झोले में रखता, फिर आगे बढ़ता, और मन ही मन कुछ गाता है |
  मैला और कुचैला, अपने लिए हाथ में थैला, मुसाफिर एक आता है ||

     एक दिन आया कुछ न पाया, अगले दिन फिर भी वह आता |
     जो लोग फेंकते तुच्छ समझकर, वह उसके काम आ जाता ||
     भर जाता है जब उसका  थैला, झटपट घर उसको पहुँचाता |
     घरवाली से हंसकर कुछ कहता,  उसको कुछ पैसे दे आता ||

 घरवाली झट आती, झोला ख़ाली लौटाती, हर रोज यही दुहराता है|
 मैला और कुचैला, अपने लिए हाथ में थैला, मुसाफिर एक आता है||

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