मेरे अनुगीत में, चित्र उभरें हैं कुछ,
व्यंजना भाव किंचित भिगोयी हुई|
शब्द चुन चुनकर,रखे हैं हर पंक्ति में,
लगता हारों में, कलियाँ पिरोयी हुई ||१||
गीत के छंद में, एक स्मृति है छिपी,
कर रही सर्जना, बिम्ब से भाव की |
मन को झंकृत करे, शक्ति ऐसी भरी,
कल्पना है छिपी, पंक्ति में प्राण सी ||२|
|
|
भाव सार्थक रहें, स्वर अधूरे भले.
रस प्रवाहित रहे, भावना के लिए |
मन की गहराईया, छू रहे शब्द यदि,
यत्न इतना बहुत, साधना के लिए ||३||
काव्य- पथ पर, महकते हों सुमन,
जिनमे मादक सुरभि, छटा हो नयी |
काव्य की पंखुड़ी, से बिंधे हों भ्रमर,
वे गुनगुनाते रहें, बस अपेक्षा यही ||४||
कह सके कवि यदि, कुछ अकथनीय,
पूर्णता काव्य में, खुद उतर आएगी |
सत्य व कल्पना, का समन्वय लिए,
भाव- गरिमा सुघर, व सहज लायेगी ||५||
सत्य,शिव सुन्दरम,की वांछित विधा,
लोक जीवन को, मंगल बना जायेगी |
ब्रह्मवर्चस त्रिवेणी, यदि बने ज्ञान की.
काव्य- धारा को, संगम बना जायेगी ||६||
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें