शुक्रवार, 24 जून 2011

जीने की राह

 सचमुच .....
 जीवन की दुधारी तलवार ;
 दोनों ओर से  ,
  मुझे पीड़ित करती है |
  प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के -
  मध्य में जी रहा हूँ |
 घुटन की बूंदे ;
 ओंठों पर आने के पहले ही...
  खो जाने की बात करती है |
 कभी कभी गिरते ही ---
 सूख जाती है  |
 क्या यही जीने की राह है...?
  जिस पर आगे बढना ---
  पीछे मुड़ने से भी ;
 घातक लग रहा है  |

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