सचमुच .....
जीवन की दुधारी तलवार ;
दोनों ओर से ,
मुझे पीड़ित करती है |
प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के -
मध्य में जी रहा हूँ |
घुटन की बूंदे ;
ओंठों पर आने के पहले ही...
खो जाने की बात करती है |
कभी कभी गिरते ही ---
सूख जाती है |
क्या यही जीने की राह है...?
जिस पर आगे बढना ---
पीछे मुड़ने से भी ;
घातक लग रहा है |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें