बीते जब दिवस शिशिर के,
तब उपवन ने ली अंगडाई |
चहुँदिशि स्वर गूंज उठा है ,
कोकिल बसंत लेकर आई ||
गिर रहे पीत पट तरु से ,
पछी उड़ रहे ज्यों नभ में |
नवकिसलय पथिक दीखता
काया-परिवर्तन के क्रम में ||
कब को सोयी यह लतिका,
चेतना हरित लेकर आयी |
कलियों का सृजन संभाले,
अब नव सुमनों से मुस्कायी ||
मुख छिपा रही है बासंती ,
नव पल्लव के घूंघट में |
भंवरे भी गुनगुना रहे हैं,
सौंदर्य सुरभि की लय में ||
महका उपवन का तृण-तृण ,
अब आम्रो की मंजरियों से |
सूना पथ विहंस पड़ फिर,
जब आँखे खोली कलियों ने ||
बह चला पवन सुखकारी,
सिहरन की कटुता खोकर |
छा गयी बसंत की सुषमा ,
नव प्रणय बीज को बोकर ||
जीवन का गीत सुनाती,
कोकिल निज मीठे स्वर में |
नव मधु की अविरल धारा ,
गुंजित है मस्त भ्रमर से ||
खिल उठे फूल सरसों के,
अब खेतो में अरहर नाची |
रुन झुन पायल के स्वर में
गोरी पिय का ख़त बांची ||
अब होली की शुभ रात्रि में,
जो स्वप्न मिलन का जागा |
रंग लो मन आज ख़ुशी से,
जा रहा दिवस यह भागा ||
सरताज बना ऋतुओं का ,
मद सरिता पुण्य बहाकर |
जा रहा उसी गति क्रम में
ऋतुराज बसंत कहाकर ||
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