अपनी ही जीवन-यात्रा से, मैं कैसे प्रतिवाद करूं |
क्या भूलूँ, क्या याद करूं ?
कदम से कदम मिला करके, मुश्किल से मंजिल है पाया |
मैं कभी कंटकों में उलझा तो,कभी सुरभियों ने भरमाया ||
कड़ी धूप के बाद मिली जब, शीतल चन्दन की छाया |
अंतर्मन के मंथन से ही, अमृत और विष दोनों है पाया ||
सुख दुःख दोनों पाया है तो, किससे जीवन की बुनियाद धरूँ |
क्या भूलूँ, क्या याद करूं ?
कुछ आंसू के साथ बहे तो, कुछ पलकों में ही बंद रहे |
सपने मेरे अरमानो के,कभी सज गये, कभी ढह गये || ,
कोई शिकवा नहीं किसी से,अपनी पीड़ा किससे कहें |
विरहाकुल मन की पीड़ा को, होकरके अब मौन सहें ||
इस यथार्थ के महाकाव्य को, कैसे अब छायावाद कहूँ |
क्या भूलूँ, क्या याद करूं ?
बढ़ी दूरियां जितनी उतना ही, मन के सदा करीब रहा |
कभी धैर्य तो कभी निराशा, जीवन ऐसा बेतरतीब रहा |
जब उनकी यादों में खोया,तो दिल का हाल अजीब रहा |
सावन में सूखे तरूओं जैसा, अपना सदा नसीब रहा |
कैसे पीड़ा के पिंजरे से अब,मन पंछी को आजाद करूं |
क्या भूलूँ, क्या याद करूं ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें