मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

गीतामृत

जीवन को युद्धस्थल कहें तो ,
हर मानव अर्जुन कहलायेगा। 
दिग्भ्रमित अनेकों प्रश्न लिए ,
वह स्वयं प्रश्न बन जायेगा। 

हर इक अर्जुन को आज यहां,
अब कृष्ण नहीं मिल पाएंगे। 
केवल वचनामृत श्रीगीता में,
वे अपने प्रश्नोत्तर पा जायेंगे। 

जब अंश रूप है जीव ब्रह्म का,
तो ब्रह्म ही मात्र उपास्य रहेगा। 
माया अरु मोह के वशीभूत हो,
जीवन का सुख कहाँ मिलेगा ?

जीवन की अभिव्यक्ति है गीता ,
जिसमें मुक्ति का मार्ग छिपा है। 
श्रीकृष्ण-अर्जुन के संवाद का ,
"अपौरुषेय" सन्देश मिला है। 

'अथातो ब्रह्म जिज्ञाषा'है गीता,
'कृष्णं वंदे जगद्गुरुम'भी गीता।
परमसुख एवम परमधाम की ,
दिव्य जीवन - यात्रा है गीता। 

जीव ब्रह्म,व भगवान परब्रहम ,
इस रहस्य का ज्ञान है  गीता। 
ज्ञान, भक्ति अरु कर्मयोग की ,
इक अतुलनीय संवाद है गीता। 

कृष्णस्तु, भगवान स्वयं जब ,
भागवद पुराण से  सम्वर्द्धित,
अब गीतामृत स्वीकार करें ,
ज्ञान,कर्म व भक्ति स्पन्दित।

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

फिर याद आया

अतीत का बौनापन ,
वर्तमान का संघर्ष और 
भविष्य की सम्भावनायें ,
इन तीनों को समेटे हुए 
हर एक गली में ,
गूंजने लगा फिरसे 
वही पुराना सा राग। 
"कसमें वादे निभाएंगे हम "
की परम्परागत घोषणा से 
किंचित विचलित मतदाता 
अपने कानों में 
उंगलियां डाल लेते हैं। 
ठीक वैसे ही,
जैसे प्रत्याशीगण जीतते ही 
उनकी हरएक आवाज पर 
उंगलियां डाल लेते हैं।

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

युगप्रवर्तक श्रीराम शर्मा को श्रद्धांजलि

प्रथम महामानव थे तुम ,हाँ मनुष्यत्व से अभिभूषित। 
सहृदय,सरल,विवेकी,सदगुरु ,मनुज प्रेम से स्पन्दित। 
स्नेह एवं दया की प्रतिमा ,सच्चरित्रता से अभिमण्डित,
श्रद्धा के अब शब्द सुमन ही ,करता हूँ तुझको अर्पित। 

अथक कर्मरत,अविरत जाग्रत ,बहुविधि अथ इति ज्ञाता। 
अगणित जन हैं तुमसे उपकृत ,कर्ण सदृश तुम थे दाता। 
स्थिति प्रज्ञ अरु कर्मयोगी भी ,तुम थे स्वराष्ट्र  के निर्माता,
यश वैभव से अभिसिंचित हो,सदा तुम्हारी यश की गाथा। 

अखण्ड ज्योति के संरक्षक ,विचार -क्रान्ति के उदगाता ,
वेद,स्मृति,उपनिषदआदि ग्रंथों के हिन्दी रूपान्तर दाता। 
गायत्री के मन्त्राक्षर से ही, दिव्य जीवन के तुम  सन्धाता,
ऋषिकुल परम्परा के संवाहक,अरु धर्म सनातन के त्राता।

मेरा अतीत

मैं तो 
उन गरीब मजदूरों के 
नंगे पैरों का वह छाला हूँ,
जिसने अपना तन छेदकर ,
उन मरुस्थलों की
 प्यास बुझाई है। 
 और अब मैं  ----
गहरे स्याल समुन्दर की ,
सघन सतहों से ,
मधुर यादों के ---
श्वेत मोती चुन रहा हूँ। 
मेरा अतीत क्या ---?
सचमुच में ,
एक टूटी हुई माला है।

नूतनवर्षाभिनन्दन

मङ्गलमय हो नूतन वर्ष तुम्हें ,
मङ्गलमय जीवन का पथ हो। 
निर्विघ्न रहे वह मार्ग सदा ही ,
जिस पर तेरे  उन्नत  पग हों। १.. 

पावस ऋतु बन  मनोकमना,
सौरभ बन जब महक उठें ,
तब जीवन का नव विकास 
पाकर बसंत खिलखिला उठे। २.. 

नववर्ष के अभिनव प्रभात में ,
नवजीवन का संकल्प लिए।
मन पतझड़ के नव अंकुर 
पा वायुवेग अब सिहर उठें। ३.. 
 
सर्वोन्नति का यह दिव्य भाव ,
तनमन का उल्लास बनेगा ,
मेरे गीतों का यह नया वर्ष,
 जीवन का ऋतुराज बनेगा। ४..  

मुश्किल

अब तो 
कुछ कहने से 
मुश्किल है खामोश रहना 
कुछ भी करने से 
मुश्किल है बैठे रहना। 
अधुनातन परिवेश में 
ऐसे संदर्भों की 
शाश्वत अर्थवत्ता 
आखिर परिवर्तित क्यों हो गयी है। 
मानव से मानव की दूरी 
क्यों क्षितिज बन गयी है ?
लगता है संस्कृति की उपेक्षा कर 
हम मात्र सभ्यता को ही 
संवारने  में लग गए हैं। 
अपने को छोड़कर 
दूसरों को न देखने की 
आदत बना ली है। 
तभी तो हर एक सामंजस्य 
मुश्किल होता जा रहा है।

परिचय

निकल आयी आज -
चेतना की एक किरण ,
दिखाने अपने  ही मन के 
 कुछ तार जो टूटे थे। 
श्रीहीन थी जिनकी झंकार। 
उस  वाद्ययंत्र के 
सभी तार 
शिथिल हो गये थे । 
टूटे तारों को कसकर 
उन पर ज्योंहि
 उँगलियों को रखा 
स्वर फूट पड़े।
अहं ब्रह्मास्मि। 
अहं ब्रह्मास्मि। 
अहं ब्रह्मास्मि।