मन की नैसर्गिक अभिलाषा, दिखलायी जब तेरा द्वार|
एक नया सौन्दर्य छिपाये, लगता सपनों का संसार ||
लालायित मन स्वयं करेगा, आज तेरा बहुबिध श्रृंगार |
जीवन वीणा में बांधेगा फिर, सचमुच कोई नूतन तार ||१||
कितना है सौंदर्य छिपाए, तेरे मुखमंडल की आभा |
कितनी सुन्दर है प्रकृति नटी, के जूड़े की यह माला ||
कितनी मादकता दे सकती,नयनों की यह मधुशाला |
पी करके कितना संभल सकेगा, तेरे रूपश्री का हाला ||२||
उफ़ : कितना सम्मोहन भी है,इन मादक नेत्रों में |
ज्यों सिमटी आभा बसंत की, सरसों के खेतों में ||
काश:समां जाती इस क्षण तुम,इन काले मेघों में |
पवन दूत बन पीछे पीछे,मैं अलग अलग भेषों में ||३||
माया,प्रकृति,शक्ति सतरूपा, जग में तेरी है पहचान |
श्रद्धा,प्रेम,स्नेह ना जाने, कितने और तेरे उपनाम ||
स्वतःपूर्ण दिखती है तू, जब करती पुष्पों का संधान |
घायल हो जाता है तब कोई, लेकर तेरा ही प्रिय नाम ||४||
बन जाती हो कभी प्रेरणा, तुम करती जीवन में संचार |
शील, दया, करूणा बन करके, कभी लुटा देती हो प्यार ||
चन्द्र-निशा में प्रकृति नटी तुम,जब भी करती हो श्रृंगार |
मन की वीणा झंकृत हो जाती, स्पंदित हो उठते तार||५|||
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