मेरे अनुगीत में चित्र उभरें हैं जो
व्यंजना भाव की ज्यों समायी हुई |
शब्द चुन चुन कर रखे हर पंक्ति में
जैसे हारों में कलियाँ पिरोई हुई ||
गीत के छंद में एक स्मृति छिपी
कर रही सर्जना बिम्ब से भाव की |
मन को झंकृत करे शक्ति ऐसी भरी
कल्पना है छिपी पंक्ति में प्राण सी ||
भाव सार्थक रहे स्वर अँधूरे ही क्यों
रस प्रवाहित रहे भावना के लिए |
मन की गहराइयाँ छू रहे शब्द यदि
यत्न इतना बहुत साधना के लिए ||
काव्य पथ पर उगे कुछ नए फूल हों
उनकी मादक सुरभि की छटा हो नयी |
काव्य की पंखुड़ी से घिरे हों भ्रमर
गुनगुनाते रहे बस अपेक्षा यही ||
कहसके यदि कवि कुछ अकथनीय सा
पूर्णता काव्य में खुद चली आएगी |
सत्य व कल्पना का समन्वय लिए
भाव-गरिमा सहज नित नयी लाएगी ||
सत्य शिव सुन्दरम की वांछित विधा
लोक -जीवन को मंगल बनती रहे |
ब्रह्मवर्चस त्रिवेणी बने ज्ञान की
काव्यधारा को संगम बनाती रहे ||
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