गुरुवार, 30 जून 2011

खो गया गाँव मेरा

खो गया है गाँव मेरा, आपके इस शहर में ही| 
बहुत भोला है बेचारा, अब रिहा कर दो उसे||

           टुकड़े- टुकड़े अंग उसके, देखकर बेचैन हूँ  मैं|
           कहीं उसकी आत्मा को, टुकड़े में न बदल दो||
           पेड़, पौधे, फूल, फल और,सारी उपज के लिए|
           क्या हो गया बंधुआ तुम्हारा, उम्रभर के लिए||

छोड़ दो उसको वह  अपनी, मिटटी में सांस  लेगा|
दम घुट रहा  होगा यहाँ, इस  रोशनी  की  छाँव में|
घर से तो आया यहीं  था, पर कहीं दिखता नहीं  है|
हाथ भी पकडूं तो किसका,शहर में मिलता नहीं है ||

              क्या कहूँगा पोखरों से, जिनकी मिटटी फट गयी है|
               पेड़ों की सूखी टहनियां भी, उसी के आसरे पली हैं||
               नीम आँगन की सुबह से, शाम  तक बस  रोती  है |
               अब धूप भी  मैली  हुई  है, मुंह  तक नहीं धोती  है||

फंस गया इस भीड़ में वह, भोले भालों की तरह से|
मैं उसे खोजूं यहाँ  पर ,या खुद को बचाऊँ  शहर से||


   

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