खो गया है गाँव मेरा, आपके इस शहर में ही|
बहुत भोला है बेचारा, अब रिहा कर दो उसे||
टुकड़े- टुकड़े अंग उसके, देखकर बेचैन हूँ मैं|
कहीं उसकी आत्मा को, टुकड़े में न बदल दो||
पेड़, पौधे, फूल, फल और,सारी उपज के लिए|
क्या हो गया बंधुआ तुम्हारा, उम्रभर के लिए||
छोड़ दो उसको वह अपनी, मिटटी में सांस लेगा|
दम घुट रहा होगा यहाँ, इस रोशनी की छाँव में|
घर से तो आया यहीं था, पर कहीं दिखता नहीं है|
हाथ भी पकडूं तो किसका,शहर में मिलता नहीं है ||
क्या कहूँगा पोखरों से, जिनकी मिटटी फट गयी है|
पेड़ों की सूखी टहनियां भी, उसी के आसरे पली हैं||
नीम आँगन की सुबह से, शाम तक बस रोती है |
अब धूप भी मैली हुई है, मुंह तक नहीं धोती है||
फंस गया इस भीड़ में वह, भोले भालों की तरह से|
मैं उसे खोजूं यहाँ पर ,या खुद को बचाऊँ शहर से||
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