प्रकृति की सुघर छवि,संवारता जब मानस मराल |
रूप व गुण का समन्वय ,निरख मन होता निहाल ||
चित्रकर्मी निज अनुकृति से , यही करता है सवाल |
शाश्वत तुम्हारा रूप यह, या तूलिका का है कमाल ||
चिर प्रतीक्षित स्वप्न अब ,साकार सा होने लगा है |
अज्ञात रचना का विषय ,अब स्पष्ट सा होने लगा है ||
अनगिनत रंग तूलिका से, चित्र तक आये अभी तक |
पर पूर्णता आयीं ना उनमे ,व्यर्थ है अंदाज अब सब ||
कौन कब आये इधर, बैरी बनी है आज निद्रा |
दौड़ते है भ्रमर भी तो, देखकर आहवान मुद्रा ||
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