शुक्रवार, 24 जून 2011

अनुकृति

प्रकृति की सुघर छवि,संवारता जब मानस मराल |
 रूप व गुण का समन्वय ,निरख मन होता निहाल ||

                                  चित्रकर्मी निज अनुकृति से , यही करता है सवाल |
                                  शाश्वत तुम्हारा रूप  यह, या तूलिका का है कमाल ||

चिर प्रतीक्षित  स्वप्न अब ,साकार सा होने लगा है |
अज्ञात रचना का विषय ,अब स्पष्ट सा होने लगा है ||

                                    अनगिनत रंग तूलिका से, चित्र तक आये अभी तक |
                                     पर पूर्णता आयीं ना उनमे ,व्यर्थ है अंदाज अब सब ||

कौन  कब  आये  इधर, बैरी  बनी है आज निद्रा |
दौड़ते  है  भ्रमर  भी तो, देखकर आहवान  मुद्रा ||   

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