धरती के आँचल में बैठा,
मैं देख रहा हूँ नीलगगन |
चूम रहा उस वायुवेग को
मन ही मन हो रहा मगन |
अम्बर पनघट पर जाकर,
वह अमृत नीर ले आऊँगा |
फिर घन बीच तडित सी,
मैं कोई ज्योति जगाऊंगा |
भू -सौन्दर्य श्रोत बना मैं,
फिर क्यों राह खोजता हूँ |
जनमानस से दूर कहीं भी ,
नीरवता को मैं खोजता हूँ |
समाज की दूषित जो छाया,
विष बादल बन बरस रही है |
अब उसे मिटा देने की आशा ,
विद्दयुत बनकर कडक रही है |
अब चिंतन का एक विषय,
चाहत है उस नीरवता का |
सदसत ज्ञान मिले मुझको,
बस प्रेम मिले मानवता का |
जीवन के स्वप्न महल में,
नीव प्यार यदि बन जाये |
क्षमताओं की दीवार बना ,
अभिलाषा की ईट लगायें |
आशाओं का यदि लेप लगे,
भक्ति रंग खुद बन जाएगी |
जीवन की अपनी हर पीड़ा ,
नव परिवर्तन ले आएगी |
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