बल पौरुष की दिव्य-मूर्ति
लंका में काल सदृश आयी |
तेज एवं उत्साह अपरिमित,
घन गर्जन बन करके छायी ||1||
लंका के जन- मन में ऐसा ,
उन्माद आज क्यों है छाया |
अन्वेषक जनकसुता का वह ,
जब कालदूत बनकर आया ||२।।
उस दिव्य-शक्ति की राहों में,
जितने भी निशिचर आये हैं |
वे सब भय से कम्पित होकर ,
लन्केश्वर के ढिंग ही धाये हैं||३।।
मारुत-सुत मारुत की गति से ,
पहुंचे अशोक वाटिका निकट|
थीं जहां चतुर्दिक पहरे पर,
थीं जहां चतुर्दिक पहरे पर,
राक्षसी भयानक और विकट ||४।।
स्वर्णमयी लंका के अन्दर ,
स्वर्ग-सदृश मधुमय प्रदेश |
हनुमान अशोक वाटिका में,
निस्तब्ध किये मंगल प्रवेश |।५।।
जग की सत्ता का सार लिए जो ,
बहु बिधि फल तरु आंदोलित थे|
जिनपर रस-प्रिय खग-वृन्दों के
समुदाय प्रेम से अनुपोषित थे ||६।।
वैभव अनुपम था उपवन का,
जिसकी छवि दिव्य-पुरी सी |
तरु झूम रहे थे मन्द मन्द ,
विजया हर पात चढ़ी सी थी |।७।।
मधुपूरित-फल निरख वीर,
मन ही मन में हुँकार भरी|
मानो वर्षों की क्षुधा लिए ,
संतृप्ति वहीं सामने खड़ी |।८।।
देखे कपिवर चहुँदिशि फैले,
तरु झूम रहे निर्भय होकर|
मानों नंदन वन उतर पड़ा ,
लंकापति का अनुचर होकर||९।।
वृक्षों की शाखाओं पर लगता ,
धनपति आवास मचलता हो |
उन रंग-विरंगे पुष्पों से मानो,
सम्प्रभुता का रंग बरसता हो ।।१०।।
आश्चर्यचकित जब बजरंगी का,
हो गया अचानक हृदय विकल |
पादप अशोक की छाया में तब ,
सिय को लख अश्रु बहे अविरल ||११।।
पादप अशोक की छाया में तब ,
सिय को लख अश्रु बहे अविरल ||११।।
उस नीरवता की पावन छवि से ,
निस्तब्ध अशोक वाटिका रही|
जिसकी तरु छाया में सिमटी ,
त्रिभुवन की प्रेम -पुन्जिका रही||१२।।
पञ्च विटप की शीतल छाया,
निष्फल सी कपिवर ने देखा|
उद्विग्न विलखती सीता का ,
जब नयन नीर बहते देखा ||१३।।
यह देख क्षोभ से कातर हो कपि,
प्रभु के चरणों का ध्यान किया|
चढ़ गये सुगम तरु शाखा पर,
फिर संकल्पों का आह्वान किया||१४।।
अब छोड़ मुद्रिका, हाथ जोड़,
परिचय अपना कपि दे डाले|
निश्चल विश्वास करें हम पर,
संक्षिप्त कथा सब कह डाले||१५।।
क्षणभर सिय पद की छाया में,
प्रभु पद कमलों का गान किया|
फिर उस चूड़ामणि को ले करके,
ज्योंहि कपि ने प्रस्थान किया||१६।।
दृष्टि पड़ी मधुमय फल पर,
तब रोम-रोम यूँ सिहर उठा|
अनुमति सीता की पाते ही ,
प्रबलेच्छा का उन्माद उठा||१७।।
तोड़े तरु की उन शाखाओं को,
मधुपूरित फल का पान किया|
ले बार बार हरि नाम वहीँ फिर ,
उपवन में कुछ उत्पात किया||१८।।
सुनकर वृतान्त लंकेश्वर तब,
सेनापति को सन्देश दिया|
उत्पाती कपि को यथाशीघ्र,
सम्मुख लायें ,आदेश दिया||१९।।
तरु तोड़ पवनसुत गर्जन भर,
जब निशिचर का संहार किया|
तब मेघनाद क्रोधित हो करके ,
कपिवर पर अधिकार किया ।।२०।।
वानर की शोभा पूंछ समझकर,
तत्काल आग उसमें लगवाया |
कपिवर का क्रोध तत्क्षण ही ,
काल- सदृश लंका में छाया ।।२१।।
स्वर्णजटित वह लंका नगरी,
पलभर में राख नजर आयी|
त्राहिमाम की आर्तनाद से,
आपत्ति घटायें घिर आयीं|| २२।।
ले बार बार हरिनाम वहीं फिर ,
प्रभु- चरणों का ध्यान किया ।
निज कौशल का परिचय देकर ,
तब कपिवर ने प्रस्थान किया ।।२३।।
ले बार बार हरिनाम वहीं फिर ,
प्रभु- चरणों का ध्यान किया ।
निज कौशल का परिचय देकर ,
तब कपिवर ने प्रस्थान किया ।।२३।।
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