रात भर मैं नींद का आँचल पकडकर सोचता था |
निशा की गोद में बैठा कोई ख्वाब सा देखता था ||
आज तो जीवन में पहली बार ऐसा वक्त आया |
नींद से भी जुदा होने का एक नया अंदाज पाया ||
पड़ रहे प्रहरों के घन पर शिथिलता नहिं जरा सी ||
मधुर स्मृतियों से घिरा देखकर मुझको लजाती ||
गमों को भूलने की एक कोशिश ही समझकर के ||
मनाने मैं चला उत्सव कहीं मधुमास जब महके ||
प्रतीक्षा रात भर जिसकी किया था बेसुमारी से |
किनारे टूट कर गिरते नयन के खारे पानी से ||
सजाकर सेज पलकों की रातभर राह जब देखा |
मिली उन बिदुओं के बीच स्मृति की कोई रेखा ||
समझने की किया कोशिश तो मैं और भी उलझा |
नींद और कल्पनाओं का पूर्व सम्बन्ध न सुलझा |
शाम से सुबह की यात्रा से बोझिल नेत्र अब हारे |
छिप गये हैं गगन में ज्यों मेरे सौभाग्य के तारे ||
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