प्रकृति के बहुतेरे संगीत, सुनाता जब हो करके मौन |
सहज अनुभव पर आती एक, गूढ़ अज्ञात प्रेरणा कौन ||
दिखा स्मृति का एक पराग, लिए था जो स्फुट झंकार |
याद आता वह स्वनिल देश,जहाँ पाया था जीवन भार ||
दिखाकर सपनों को उच्छ्वास,उमड़ती जब भी स्मृति-गान |
लिए उद्दीपन का अनुभाव, झलक पड़ता हृदयस्थ वितान ||
वेदना पर दैवीय संगीत,सुनाती जब उदभव का इतिहास |
संस्कारों से नियमित सृष्टि, करेगी कब तक यूं परिहास ||
मिली है जो इच्छा स्वातंत्र्य, उसी को सम्बल माना था |
कसौटी पर सुख दुःख का नाम, इसी सीमा में जाना था ||
भूलता अब गीतों का अंदाज,शिथिल ऊँगली पर टूटे तार|
शब्द में ला करके वह उन्माद, पड़ा हूँ स्मृति के उस पार ||
कौंधता विद्युत सा जब संवेग, दृष्टि में आता वह परिवेश|
किधर से आया है अनुदान, लिए गत जीवन का सन्देश||
वीतरागी का सा संकल्प, मुझे क्यों आंदोलित कर देता |
अटल विशवास और श्रद्धा को ,जगाकर बस में कर लेता ||
तर्क का भाषिक शुष्क प्रहार,विखंडित कर करता उदघोष |
प्रणय का सर्वांगीण प्रयोग, मात्र अब जीवन का अनुमोद ||
आत्म बल में परिवर्तन शक्ति, बनी जीवन का दृढ आधार|
प्रकृति का नैसर्गिक सदभाव, वहन करती धरती का भार ||
तप्त सांसो के क्रम में आज, कभी जब मिलता यह आभास |
विकल है अन्दर मेरे कौन, किधर से आता यह उच्छ्वास ||
प्रेरणा का अभिनव अभिश्रोत,स्वयं ही करता जब गुन्जार|
असीमित से मिलने का भाव, जगा कर करता यह हुंकार ||
साध्य से साधन का औचित्य, प्रमाणित जब भी होता है |
साध्य की सीमा में ही वह मूल्य,सदा अनुमोदित होता है ||
इसी नैतिक मर्यादा प़र ही, बिताकर जीवन के कुछ क्षण |
शान्त एकाकी सा बैठा हूँ ,नयन में बंद किये कुछ स्वप्न ||
जन्म और मृत्यु का परिवेश, जिधर भी करता है संकेत |
दृष्टि बरबस ले जाती उस ओर, जानने दोनों का सम्वेग ||
इसी आवृत्ति में ले उच्छ्वास, ज्ञान का निकला एक प्रकाश |
मृत्यु और जीवन का विज्ञान, नहीं दे पाया कुछ आभास ||
सत्य शिव सुंदर का सद्ज्ञान, उपस्थित करता जो प्रतिरूप |
उसी में स्रष्टा सृष्टि समेत , दृश्य आत्मा का भी वह चिदरूप ||
परम अनुभव का यह सोपान, यही है आत्मा का उच्छ्वास |
आत्म जागृति का यह विज्ञानं,यही कहलाता दिव्य प्रकाश ||
सृष्टि का यह अभिनव सम्वेग, ह्रदय को छूता है बारम्बार |
नवीनता का दे करके आभास, खोल देता तब मन के द्वार ||
उभरती है जब मृदु मुस्कान,शिथिल हो जाते मन: सम्वेग |
श्वास में छिपा हुआ उच्छ्वास, सुधा बरसाता बन कर मेघ ||
अनुरागी का सा दृढ संकल्प, शिथिल होकर लेता उच्छ्वास |
प्रकृति का नैसर्गिक परिदृश्य, उमड़ता बनकर भाव विलास ||
प्रणय के वे सब स्थायी भाव, सिहर उठते जब बारम्बार |
मानों इस जड़ चेतन से होकर, ह्रदय सागर में उमड़े ज्वार ||
मैं एक अकिंचन अति आतुर, चिर भ्रमित पंथ प़र खड़ा मौन |
इन सागर लहरों का आलिंगन, निष्फल कर देता भला कौन ||
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