सुन लो भारत की संतानों, इतिहास तुम्हे आवाज दे रहा |
पीछे मुड़कर देखो उसको तू , क्यों अशांति को झेल रहा ||
तुम पा जाओगे मार्ग वहीं पर, जरा देखो तो उन पृष्ठों को |
रामायण, गीता, उपनिषदों में, भरे पड़े हैं मार्ग- प्रवर||
देख दुर्दशा अब मनुपुत्रों की,धर्म आज क्यों निष्क्रिय है|
दुष्कर्मों से धन अर्जन की, वृत्ति आज जन को प्रिय है|
जाति वर्ग व खून का रिश्ता,सक्रिय है जिस गतिक्रम में|
मानवता भी सो रही कदाचित,चिर निद्रा के अंतर्पट में||
विश्व बन्धु की संतानों ने,पी ली किंचित स्वार्थ सुरा |
मदमस्त घूमते हैं ऐसे वे,ज्यों अपने को ही दिए भुला||
न्याय,कर्म, धर्म,अहिंसा,निष्क्रिय हो असहाय पड़े हैं|
टूट चुके अब मानदंड सब, दुष्कर्मों के कंकाल खड़े हैं ||
सर्वाधिक अफ़सोस है उनपर,जब दो चेहरे दिखते हैं|
बाहर से जन सेवक बनकर, निर्धन के खूँ को पीते हैं||
कलियुग का काल-दृश्य, अब सर्वत्र एक सा छाया है |
शायद आज परीक्षित ने,निज तरकश ख़ाली पाया है ||
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