सोमवार, 27 जून 2011

नव जागरण

 सुन लो भारत की संतानों, इतिहास तुम्हे आवाज दे रहा |
 पीछे मुड़कर देखो उसको तू , क्यों अशांति को झेल रहा ||
 तुम पा जाओगे मार्ग वहीं पर, जरा देखो तो उन पृष्ठों को |
  रामायण,  गीता, उपनिषदों  में, भरे  पड़े  हैं मार्ग- प्रवर||

                                  देख दुर्दशा अब मनुपुत्रों की,धर्म आज क्यों निष्क्रिय है|
                                  दुष्कर्मों से धन अर्जन की, वृत्ति आज  जन को प्रिय है|
                                  जाति वर्ग व खून का रिश्ता,सक्रिय है जिस गतिक्रम में|
                                  मानवता भी सो रही कदाचित,चिर निद्रा के अंतर्पट  में||

विश्व बन्धु  की संतानों ने,पी ली  किंचित स्वार्थ सुरा |
मदमस्त घूमते हैं ऐसे वे,ज्यों अपने को ही दिए भुला||
न्याय,कर्म, धर्म,अहिंसा,निष्क्रिय हो असहाय पड़े हैं|
टूट चुके अब मानदंड सब, दुष्कर्मों के कंकाल खड़े हैं ||

                                सर्वाधिक अफ़सोस है उनपर,जब दो चेहरे दिखते हैं|
                                बाहर से जन सेवक बनकर, निर्धन के खूँ को पीते हैं||
                                कलियुग का काल-दृश्य, अब सर्वत्र एक सा छाया है |
                               शायद आज परीक्षित ने,निज तरकश ख़ाली पाया है ||

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