दिग्भ्रमित नहीं मैं मस्ती में,
इधर उधर विचरण करता हूँ |
झर - झर झरती लहरी का,
अनुगामी विह्वल दिखता ||
निशिदिन अपने ही प्रतिध्वनि के,
स्वर को मुखरित करता रहता |
मानो जड -चेतन की सृष्टि में,
मै सृजन कोई करता रहता ||
उठता गिरता नित आगे बढ़ता,
नित स्वर नया निकलता रहता |
ग्रीष्म , शरद ,वर्षा-ऋतु में भी,
कभी नहीं गत्यान्तर करता ||
निज पाषाणों की कर्कशता से,
मैं प्रायः लड़ता रहता हूँ |
अपनी तरल गरल पीड़ा की,
व्यथा उन्हीं से ही कहता हूँ ||
ना जाने कब भ्रमित पथिक ,
आकर निज प्यास बुझा जावे |
झर - झर स्वर का आकर्षण ,
मुझमे जीवन गति भर जावे ||
अपना सरस प्रवाह देखकर,
जीवन मर्म सुनाता जब जब |
मनभावन उपवन का तृण-तृण,
मुझे सुवासित करता तब - तब ||
मेरा गंतव्य कहाँ है यह भी,
अब तक नहीं जान पाया हूँ |
इन पाषाणों को ही अब तक,
अपना सहचर कह पाया हूँ ||
विश्राम कहाँ जीवन पथ पर,
मेरा प्रवाह तो अनवरत हैं |
समय चक्र के समनान्तर ,
झर झर बहता मेरा जल हैं ||
टकरा करके इन चट्टानों से ,
निज मृदुता कभी नही छोड़ी |
पथिको को मधुपान कराती ,
अंतर्मन की तपिश निगोड़ी ||
चट्टानों से गिर गिर कर भी,
मैं चूर चूर हो फिर उठता हूँ |
दिन और रात सफर करता,
फिर भी कभी नही थकता हूँ ||
अंतर्मन की यही वेदना तो,
जीवन- गीत सुनाती रहती |
पीडाओं के झंकृत स्वर से ,
दैवीय संगीत लुटाती रहती ||
अपना सरस प्रवाह देखकर,
जीवन मर्म सुनाता जब जब |
मनभावन उपवन का तृण-तृण,
मुझे सुवासित करता तब - तब ||
मेरा गंतव्य कहाँ है यह भी,
अब तक नहीं जान पाया हूँ |
इन पाषाणों को ही अब तक,
अपना सहचर कह पाया हूँ ||
विश्राम कहाँ जीवन पथ पर,
मेरा प्रवाह तो अनवरत हैं |
समय चक्र के समनान्तर ,
झर झर बहता मेरा जल हैं ||
टकरा करके इन चट्टानों से ,
निज मृदुता कभी नही छोड़ी |
पथिको को मधुपान कराती ,
अंतर्मन की तपिश निगोड़ी ||
चट्टानों से गिर गिर कर भी,
मैं चूर चूर हो फिर उठता हूँ |
दिन और रात सफर करता,
फिर भी कभी नही थकता हूँ ||
अंतर्मन की यही वेदना तो,
जीवन- गीत सुनाती रहती |
पीडाओं के झंकृत स्वर से ,
दैवीय संगीत लुटाती रहती ||
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