रविवार, 17 जुलाई 2011

हम और तुम

 अव्यक्त भावना का उदभव,
   अंतर्पट पर जब जब देखा |
    जीवन के उन लघु वृत्तों पर,
     खिच गयी प्रणय की  रेखा ||

 नैसर्गिक अनुकृति से वह,
  तृप्ति  प्रेरणा तब लेती है|
   हर पल प्रिय की पीड़ा से,
   विरही को जीवन देती है||

 बन जहाज का पंछी मैं,
  जब बार बार मडराता हूँ|
   प्रिय की बाँहों में आकर, 
    गीत मिलन के गाता हूँ ||

 शायद इस अनुमोदन पर,
  तुम ध्यान अभी दे पाई हो |
   मेरी अब पीड़ा सहलाने को,
    लगता रूपसि तू मुस्काई हो||

 बस  इतना ही पर्याप्त मुझे,
  जीवन पथ पर चलने को |
   परछाई बनकर चलना तुम,
    कर्म- भूमि में भी लड़ने को ||

 हार नहीं खा सकता किंचित,
  पग से पग अगर मिले तेरा|
   पवन वेग से प्रेरित घन सा,
    दूर कहीं भी ले लेंगे बसेरा || 
      

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