अव्यक्त भावना का उदभव,
अंतर्पट पर जब जब देखा |
जीवन के उन लघु वृत्तों पर,
खिच गयी प्रणय की रेखा ||
नैसर्गिक अनुकृति से वह,
तृप्ति प्रेरणा तब लेती है|
हर पल प्रिय की पीड़ा से,
विरही को जीवन देती है||
बन जहाज का पंछी मैं,
जब बार बार मडराता हूँ|
प्रिय की बाँहों में आकर,
गीत मिलन के गाता हूँ ||
शायद इस अनुमोदन पर,
तुम ध्यान अभी दे पाई हो |
मेरी अब पीड़ा सहलाने को,
लगता रूपसि तू मुस्काई हो||
बस इतना ही पर्याप्त मुझे,
जीवन पथ पर चलने को |
परछाई बनकर चलना तुम,
कर्म- भूमि में भी लड़ने को ||
हार नहीं खा सकता किंचित,
पग से पग अगर मिले तेरा|
पवन वेग से प्रेरित घन सा,
दूर कहीं भी ले लेंगे बसेरा ||
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