सोमवार, 4 जुलाई 2011

अनन्त -दृष्टि

  अनन्त -दृष्टि 
जब कभी एकान्त में,
अनन्त आकाश की ओर-
दृष्टि जाती है |
दिखते हैं अनगिनत तारे,
 हल्के नीले पर्दों से,
 मुस्कराते हुए और तभी,
मधुर स्वर से अनुबद्ध,
 कोई अज्ञात प्रेरणा--
दस्तक देने लगती है |
कोई गीत उभरता है|
ओंठ फडकते हैं/मन गुनगुनाता है |
ह्रदय से निकलती है| 
काव्य की एक धारा--
 जो सम्वेदनाओं के सहारे,
 अनन्त आकाश की ओर--
 जाकर लींन  हो जाती है|
 उसी अनन्त में,
 जहाँ से प्रस्फुटित हुई थी  |

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें