यह मेरी भावुकता ही होगी
लिखने का मन कहता जो ||
कुछ भी नहीं भुला पाता मैं ,
शेष है लिखने की भ्रमता जो ||१||
'जिज्ञासु' बना मैं देख रहा हूँ,
आयामरहित यह नील गगन |
कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता,
फिर भी क्यों हो रहा मगन ||२||
रिश्तों को गले लगा करके मैं,
हार गया अब शेष नहीं कुछ |
जीत समझ बैठा उसको ही,
यह भावुकता का कडवा सच||३||
बना नहीं है प्रारूप अभी तक,
भाव- शून्य उन सपनों का |
कितने प्रयोग कर देख लिया,
यह मृगमरीचिका थी यत्नों का ||४||
अब सर्वस्व लुटाने के यत्नों को,
केन्द्रित करना जब सीख लिया |
भावुकता के उस नग्न रूप को,
अब कोरे कागज पर खींच दिया ||५||
सौम्य,सरस,अनुराग विखंडित,
जीवन भी क्या कोई जीवन है|
सच कलुषित अनुभावों में यह ,
पशुवत जीवन का अनुशीलन है||६||
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