जिसने माँ की अर्चना हेतु
,हिंदी की ज्योति जलाया |
उस प्रहरी की सुस्मृति ने,
यह वन्दन गीत सुनाया ||
भारत के हिन्दी उपवन में,
सौरभ बनकरके जो महका |
आजादी के विप्लव वन में,
उन्नायक बनकर जो चहका ||
डगमग थी जो राजाश्रय में,
हिंदी की वह मानक पतवार |
अंग्रेजों की नीति भंवर में,
डूब गया था जब खेवनहार ||
ऐसे दुर्दिन में ही टंडनजी ने,
तन,मन,धन सब कुर्वान किया |
हिन्दी को पतवार बना करके,
नवयुवकों का आह्वान किया ||
सम्मेलन की भी नींव रखी,
हिंदी को जीवन मार्ग दिया |
आजीवन हिंदी के स्वर को,
राष्ट्रीयता का सम्मान दिया ||
आज उन्ही के पदचिह्नों पर,
भारत निज भाग्य संवारा है
भारत की सर्वोंन्नति में ही ,
अब यह राष्ट्र- प्राण हुंकारा है ||
जबतक गंगा और यमुना की,
धारा निर्झर व निर्मेष बहेगी |
विश्व- भूमि पर संस्कृति की,
अब हिंदी ही अभिषेक करेगी ||
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