नील गगन में दूर दूर तक,
दिखा कहीं बादल का रूप |
जो काले काले रूप सुनहरे ,
भाग रहे हैं बनकर मूक ||
कभी दीखते शिला खंड सा ,
वे कभी श्वेत सुमनों के ढेर |
प्रतिक्षण रूप बदलते रहते,
ज्यों शिशु के मनभावन खेल ||
वह ढूढ़ रहे मानों कोई स्थल,
जो आकुल होकर तड़प रहें हैं |
जीवन और मृत्यु-शैय्या पर,
प्यासे ही करवट बदल रहें हैं ||
मुरझाई उन घासों का यौवन,
बरबस उन्हें सुवासित करता|
अतिशय गर्मी से तप्त धरा पर,
आ जाने को आमंत्रित करता||
शीतल वायु- वेग से कम्पित,
कर्कश रव में वे गीत सुनाते|
भीमकाय आकृति में ढलकर,
धरती पर अमृत -नीर लुटाते ||
टकरा करके पर्वत खण्डों से,
स्थिरता लाते निज गति में |
दृष्टि फेक करके धरती पर,
हरियाली ले आते उपवन में ||
झूम उठे हलधर खेतों में,
पड़ी फुहारें जब झर- झर|
सारंग नाच उठे उपवन में,
बच्चे सब दौड़ पड़े झटपट||
अंतर्मन के भाव उमड़कर,
अंतर्निधि को पहचान लिए|
शिलाखंड की काया से ऐसी,
सुधा बरसती अब जान लिए||
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