रविवार, 4 सितंबर 2011

जख्म

     भुला बैठा जिस गम को ,वही क्यों पास आता है |
      समय दूरी का बंधन भी ,नहीं क्यों रोक पाता है ||

                        रहम खाते तनिक भी तो इस कदर जुर्म ना ढाते |
                         सजायें दे दिए जिनकी, उन्हें फिर पास ना लाते |

     मेरी तकदीर से खेलना ,अब उनकी जरूरत है |            
      मेरा संघर्ष में पलना , अब उनकी वसीयत है ||

                       गवां  बैठा जिस पल को,वह कोई सौगात लाता है |
                        भुला बैठा जिस गम को,वही क्यों पास आता है ||

 नेत्र में अश्रु भी आते हैं  तो उनकी ही अपेक्षा से | 
 ओठों पर मुस्कराहट भी,उनकी ही सियासत है ||

                          छोडा नहीं कुछ भी,जिसे अपना मैं कह पाता |
                           यही दुर्भाग्य अब मेरा, जिसे हर बार मैं पाता ||

हकीकत भी इसे अबतक ,नहीं क्यों रोक पाता है| 
 भुला बैठा जिस गम को,वही क्यों पास आता है||


4 टिप्‍पणियां:

  1. जख्म के बारे में अपनी राय व सुझाव अवश्य भेजें ,धन्यबाद

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  2. कभी कभी मिलते रहो और गुफ्तगूं करते रहो |
    एक दुसरे को जानने की हर कोशिशें करते रहो||

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  3. दिल की कुछ बातें हैं जो जुबा पर नहीं आती|
    खामोशियों के आईने में खुदबखुद दिख जाती ||

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  4. जीने और मरने की कसमें हम खाते रहे |
    चंद और सितारे तक कदमों में रखते रहे||

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