प्रतिवर्ष विजयादशमी का ,
हम पर्व मनाते ही आये हैं |
प्रतिमा रावण की रखकर,
आग लगा फिर हरषाये हैं||
खेद आजतक पर्व मनाना,
हमें अभीतक न आ पाया |
मात्र पटाखे फुलझड़ियाँ ही,
मेले से घर तक ले आया ||
फुलझड़ियों के प्रकाश में,
झलक रहे आँखों का नीर |
टूट चुके हैं फिर भी हम,
रखते हैं संस्कृति की पीर ||
क्षुधा उदर की चले मिटाने,
खा करके बहुबिध मिष्ठान |
भूल गये संस्कृति को भी,
पा गये नशे की जो दूकान ||
कितने रावण के पुतलों को,
वे हर माह जलाया करते हैं |
हड़ताल और अनशन द्वारा,
हम त्यौहार मनाया करते हैं ||
सत्यासत्य प्रतीक युद्ध अब,
यदि हम चौराहे पर देखेंगे |
इस अंतर्मन के महायुद्ध की,
ज्वाला में बस घी ही फेंकेंगे ||
समझें उन सन्दर्भों को भी,
जो मूल्यांकन योग्य रहें |
श्रृंखला निरंतर जोड़ रही,
इस युग में हमको उनसे ||
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