रविवार, 7 अगस्त 2011

क्षणिकाएं

यह दास्ताँ जो आपने सुनायी अभी जुबाँ से ,
नजरों की दास्ताँ से मुझे बेमेल लग रही है |\

वतन की तरक्की का कोई भी सानी नहीं होगा |
घर घर होगा कम्प्यूटर मगर पानी नहीं होगा ||

मेरी एक आह भी बदनाम क्यों हो जाती है ?
उनके हजारों कत्ल की चर्चा भी नहीं होती है |

मौत तो होती है उनकी जो कभी न याद आयें |
जो हमेशा याद आते मौत उनका क्या करेगी ||

वफा से बेवफाई तक फासला तय किया मैंने |
कहो तो नाप कर देखूं इन्हीं लाचार कदमों से ||

जमीं पर चाँद देखा तो आसमाँ सुर्ख नजर आया |
खुदा के वास्ते अब उस चांदनी पर पर्दा मत डालो ||

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें