मैं एक अकिंचन अति आतुर ,
भ्रमित पथिक सा खड़ा मौन |
सागर की लहरों के नर्तन को ,
निष्फल कर देता भला कौन |
कर रहे प्रतीक्षा तृषित नयन,
मन अति अधीर पर क्षुब्ध नहीं |
ह्रदय सीप में जो मोती बनती है ,
उस स्वाति की मैं वह बूँद नहीं |
तृष्णा, माया ,घृणा, मोह सब ,
मिल करके रचते बस अंधकार ||
केवल प्रेम- मार्ग ऐसा पथ है ,
जो जीवन-नैय्या को करता पार ||
झंकृत भाव करते प्रतिबिम्बित ,
स्पन्दन में कोई प्रीति जगाकर |
चेतन से बेहतर तो जड़ लगते हैं
वन, पर्वत, उपवन, झरने,सागर ||
वीतरागी का यह दृढ -संकल्प,
शिथिल हो जब लेता उच्छ्वास |
प्रकृति का नैसर्गिक परिदृश्य ,
उमड़ता बनकर भाव -विलास ||
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