इस पुण्य धरा के आंचल में ,
कितने अंकुर फूटे अबतक |
मां की निश्छल ममता ने ही ,
छाती से लगाया है अबतक ||
मैं एक क्षोभ से अनुमोदित ,
मां धरती का एक सृजनहार |
मां की ममता की प्यास लिए ,
मैं उन्माद भरा हूँ निराधार ||
अब राह भी न ऐसी कोई है ,
जिसका राही मैं बन जाऊं |
राही भी न कोई दिखता है,
जिसका कृतकृत्य हो जाऊं ||
बस रहा एक जीवन- प्रमोद ,
आनन्द भरा मधुमय अपार|
पी लूं उस पावन अमृत को ही ,
मिल जाये अगर जीवन कगार |
अंकुर बन करके धरती पर ,
पल्लवित वृक्ष का रूप धरूँ |
मां का इकलौता बेटा बनकर,
मैं भी धरती का उद्धार करूं ||
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