अहसास पाकर मुझमें,
सोया हुआ आदमी जाग पड़ा |
जब वहअपने अधिकारों का ,
दस्तावेज मांगने लगा |
तब मैं निर्वाक उसे,
एकटक निहारता रहा |
आखिर कहना ही पड़ा ,
उन अधिकारों से -कर्तव्यों का
समीकरण तो कब का टूट चूका है |
जाओ सो जाओ ,
रात अँधेरी है |
आतंक की छाया बहुत ही घनेरी है |
सवेरे सूरज उगने तक ,
मैं दूसरा दस्तावेज,
तैयार कर लूँगा |
और तेरे सिरपर,
उसे चिपका दूंगा |
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