शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

मुश्किल

अब तो 
कुछ कहने से 
मुश्किल है खामोश रहना 
कुछ भी करने से 
मुश्किल है बैठे रहना। 
अधुनातन परिवेश में 
ऐसे संदर्भों की 
शाश्वत अर्थवत्ता 
आखिर परिवर्तित क्यों हो गयी है। 
मानव से मानव की दूरी 
क्यों क्षितिज बन गयी है ?
लगता है संस्कृति की उपेक्षा कर 
हम मात्र सभ्यता को ही 
संवारने  में लग गए हैं। 
अपने को छोड़कर 
दूसरों को न देखने की 
आदत बना ली है। 
तभी तो हर एक सामंजस्य 
मुश्किल होता जा रहा है।

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