अब तो
कुछ कहने से
मुश्किल है खामोश रहना
कुछ भी करने से
मुश्किल है बैठे रहना।
अधुनातन परिवेश में
ऐसे संदर्भों की
शाश्वत अर्थवत्ता
आखिर परिवर्तित क्यों हो गयी है।
मानव से मानव की दूरी
क्यों क्षितिज बन गयी है ?
लगता है संस्कृति की उपेक्षा कर
हम मात्र सभ्यता को ही
संवारने में लग गए हैं।
अपने को छोड़कर
दूसरों को न देखने की
आदत बना ली है।
तभी तो हर एक सामंजस्य
मुश्किल होता जा रहा है।
कुछ कहने से
मुश्किल है खामोश रहना
कुछ भी करने से
मुश्किल है बैठे रहना।
अधुनातन परिवेश में
ऐसे संदर्भों की
शाश्वत अर्थवत्ता
आखिर परिवर्तित क्यों हो गयी है।
मानव से मानव की दूरी
क्यों क्षितिज बन गयी है ?
लगता है संस्कृति की उपेक्षा कर
हम मात्र सभ्यता को ही
संवारने में लग गए हैं।
अपने को छोड़कर
दूसरों को न देखने की
आदत बना ली है।
तभी तो हर एक सामंजस्य
मुश्किल होता जा रहा है।
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