रविवार, 5 नवंबर 2017

प्रारब्ध का निषेध

शास्त्रों में बताया गया है कि आत्मज्ञान प्राप्त हो जाने के पश्चात भी प्रारब्ध साथ नहीं छोड़ता है। आगामी और संचित कर्म तो ज्ञान की ज्वाला में भस्म हो सकते हैं किन्तु प्रारब्ध का भोग ज्ञानी पुरुष को भी करना पड़ता है। सर्वप्रथम यह जान लेना आवश्यक है कि प्रारब्ध शरीर के लिए होता है न कि आत्मा के लिए। शरीर जड़ होने के कारण प्रारब्ध के परिणाम को अनुभव नहीं कर पाता। चूँकि ज्ञानी पुरुष की सभी वासनाएं क्षीण हो जाती हैं अतः उसका कोई अपना प्रारब्ध हो ही नहीं सकता। इस वास्तविकता का ज्ञान न  होने के कारण ही सामान्यतः प्रारब्ध का संबंध शरीर से जोड़ दिया जाता है। प्रायः कहा जाता है कि प्रारब्ध के कारण ही रामकृष्ण परमहंस,जीसस,क्राइस्टआदि को अपना प्रारब्ध भोगना पड़ा था किन्तु ज्ञानी पुरुष के अनुसार वे सभी मुक्त आत्माएं हैं। ज्ञानी पुरुष शरीर, मन, बुद्धि में तादात्म्य नहीं रखते अतः वे शारीरिक घटनाओं से अनासक्त रहते हैं। 
शास्त्रों के अनुसार आत्मज्ञान के पश्चात मनुष्य शरीर ,मन एवं बुद्धि की उपाधियों से रहित होकर शुद्ध निर्विकार  चेतना का अनुभव करने लगता है। शंकराचार्य जी मंतव्य है कि ज्ञानी पुरुष के लिए कोई प्रारब्ध नहीं होता है। इसका कारण यह है कि जब हम अपने को शरीर,मन एवं बुद्धि से पृथक कर लेते हैं तो वह हमारे भीतर विद्यमान नहीं रहता और जाग्रत अवस्था में वह शुद्ध चेतना के दिव्य प्रकाश में निर्जीव हो जाता है। जिसप्रकार स्वप्न द्रष्टा जागृतावस्था में स्वप्न की वस्तुओं एवं घटनाओं से मुक्त हो जाता है ठीक उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त हो जाने पर प्रारब्ध भोग से वह मुक्त हो जात्ता है। 
प्रारब्ध की उत्पत्ति पूर्व कर्मों से मानी जाती है। मनुष्य अपने अतीत को अपनी वासनाओं के रूप में जीवन्त करता है और वासनाओं के अनुसार ही उसकी भावनाएं और विचार बनते हैं तथा तदनुसार कर्मों का निर्धारण होता है। इस प्रकार पूर्व कर्मों के कारण उत्पन्न हुई वासनाओं का फल भोगने के लिए उनके उपयुक्त शरीर और वातावरण बनता है। वासनारूप कारण शरीर के द्वारा ही अतीत हमारे ऊपर अपना प्रभाव डाला करता है। .अतः प्रारब्ध तभी तक है जब तक कोई वासनाओं के अधीन रहता है।   ज्ञानी पुरुष को कोई वासनाएं प्रभावित नहीं कर पातीं हैं। अतः ज्ञानी पुरुष का कोई प्रारब्ध नहीं होता है। प्रश्न उठ सकता है कि ज्ञानी पुरुष के वर्तमान जीवन का क्या होता है ? भूत और भविष्य तो नष्ट हो जाते हैं किन्तु वर्तमान तो साथ साथ ही रह जाता है। शंकराचार्य जी ने विवेक चूड़ामणि में एक दृष्टान्त देते हुए कहा है कि कोई शिकारी सिंह को अपना शिकार समझकर उसपर अपना बाण चलाता है और धनुष से बाण निकल जाने पर वह देखता है कि जहां पर उसने बाण छोड़ा था वह सिंह न होकर गाय है। अब वह चाहते हुए भी अपने छूटे हुए तीर को वापस नहीं ले सकता और तीर अपने लक्ष्य तक अवश्य जायेगा तथा गाय को लगेगा भी। अब केवल एक ही विकल्प शेष रह जाता है कि बाण की शक्ति को उस ओर जाते हुए किञ्चित क्षीण कर दिया जाये। अतः यह सिद्ध हुआ कि ज्ञानी पुरुष का प्रारब्ध उसके द्रष्टा की दृष्टि में  ही है, उसकी अपनी दृष्टि से नहीं। 
कर्म  जन्मान्तरकृतं  प्रारब्धमिति  कीर्तितम। 
तत्तु जन्मान्तराभावात्पुंसो नैवास्ति किञ्चितम। 
उक्त श्लोक में प्रारब्ध का तात्पर्य पूर्व कर्मों के फल से है। यहां पर पूर्व कर्म का अर्थ केवल पूर्व जन्म से ही नहीं है बल्कि पूर्वकाल के सभी कर्मों से है। अग्नि को छूने से हाथ का जलना पूर्व कर्म का फल नहीं है बल्कि यह तात्कालिक फल है। कुछ कर्मों का परिपाक धीरे धीरे कालांतर में होता है और यही परिपक्व फल ही प्रारब्ध कहलाता है। आत्मज्ञान होने पर ज्ञानी पुरुष काल पर विजय प्राप्त कर लेता है क्योंकि काल बुद्धि की अवधारणा है और ज्ञानी पुरुष मन एवं बुद्धि से पार चला जाता है। इसीलिए ज्ञानी पुरुष कालातीत गति प्राप्त कर लेने पर काल के अंदर सक्रिय रहने वाले प्रारब्ध से मुक्त हो जाता है

3 टिप्‍पणियां:

  1. विद्वतापूर्ण व्याख्या है।साधुवाद! पर आत्म ज्ञान प्राप्त होने का अर्थात एक आत्मज्ञानी होने के क्या संकेत हैं कि एक साधारण आदमी ये समझ सके कि ये व्यक्ति आत्मज्ञानी है?प्रारब्ध सम्बन्धी इस ज्ञान का या कीगई इस व्याख्या का व्यवहारिक जीवन में क्या उपयोग हो सकता है की जीवन ज्यादा शांतिपूर्ण हो और सुखमय हो।किसी भी तरह के ज्ञान का अंतिम उद्देश्य जीवन को बेहतर बनाना ही होना चाहिए।इसी उद्देश्य से ये प्रश्न मेरे मन में आये हैं।

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    1. आत्मज्ञानी के शास्त्रसम्मत सभी लक्षणों का पाखण्ड और नाटक संभव है अतः आप आत्मज्ञानी को नही पहचान सकते जब तक स्वयं आत्मज्ञानी न हो।

      नही आत्मज्ञान होते ही शरीर मन अहंकार का अध्यास अलग देख लिया जाता है तो जिसकी दृष्टि में संसार का अभाव है वहाँ व्यवहार कैसा।

      लेकिन और ये लेकिन बड़ा है।

      आत्मज्ञान होने के बाद भी वासनाक्षय, मनोनाश, और जीवनमुक्ति ये प्रायः सभी साधको को करना पड़ता है (तैलंग स्वामी इत्यादि कुछ को छोड़कर) मानो आपको आज आत्मज्ञान हुआ फिर आप सो गए उठे तो फिर जगत दिखेगा स्वप्न में भी अपने को वही देखेंगे जो जाग्रत में हैं। अब आप फिर अभ्यास करेंगे फिर ज्ञान दृष्टि का उदय होगा। तो अब या तो आप अवधूत हो जाए तस्य कार्यम न विद्यते। पर यदि प्रारब्ध बलशाली है तो उतने शक्ति से उनको तनु या कमजोर करना पड़ेगा जीवनमुक्ति के आनंद हेतु। मुक्त तो आप आत्मज्ञान से ही हो जाएंगे।

      अब विकल्प है। कर्माशय को तनु करने हेतु तप स्वाध्याय ईश्वर प्रणिधान। अब एक ओर आप जानते है संसार नही है वासना प्रकाशित हिती है और कृतोपसक न होने के कारण आप एकदम सब छोड़ पाते नही तो ये उपाय हैं।

      तीसरा प्रश्न।
      नही आप केवल देहाभिमान से ऐसा प्रश्न कर रहे है। आत्मज्ञान के बाद जगत कुछ बहुत महत्व का बचता नही फिर भी क्लेशो को दग्ध करने के अभ्यास में आत्मज्ञानी ये प्रयास अवश्य करता है कि यह ज्ञान सभी को उपलब्ध हो । इससे बड़ी कोई सेवा नही। मुक्त तो वह पहले ही है।

      अंतिम बात
      ये शायद अभी समझ न आये ...छोड़िए फिर कभी।

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  2. Surjit Sinha9 अप्रैल 2018 को 11:35 am
    विद्वतापूर्ण व्याख्या है।साधुवाद! पर आत्म ज्ञान प्राप्त होने का अर्थात एक आत्मज्ञानी होने के क्या संकेत हैं कि एक साधारण आदमी ये समझ सके कि ये व्यक्ति आत्मज्ञानी है?प्रारब्ध सम्बन्धी इस ज्ञान का या कीगई इस व्याख्या का व्यवहारिक जीवन में क्या उपयोग हो सकता है की जीवन ज्यादा शांतिपूर्ण हो और सुखमय हो।किसी भी तरह के ज्ञान का अंतिम उद्देश्य जीवन को बेहतर बनाना ही होना चाहिए।इसी उद्देश्य से ये प्रश्न मेरे मन में आये

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